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कवि-सम्बधिनी बिल्हण की एक और उक्ति को उद्धत करके, हम, लेखनी को विश्राम देना चाहते हैं-

लङ्कापतेः सङ्कुचितं यशो य-
द्यत्कीर्तिपात्रं रघुराजपुत्रः।
स सर्व एवादिकवेः प्रभावो-
न कोपनीयाः कवयः क्षितीन्द्रैः।।

सर्ग १, पद्य २७ ।

लंकेश्वर रावण का यश जो धूल में मिल गया और रघुनायक रामचन्द्र की कीर्ति जो दिगन्त में व्याप्त हो गई वह सब एक आदि-कवि वाल्मीकि ही का प्रभाव है। राजाओं को चाहिए कि, कवियों को वे कभी कुपित न करें। हम भी 'तथास्तु' कहते हैं और कालिदास के रघुवंश की अनुकरण-शीलता का दोष लगाने का अपराध करके बिल्हण से त्रिवार क्षमा-प्रार्थना-पूर्वक इस चर्चा को समाप्त करते हैं ।