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निशाने में आये हुए (अपने पति) हरिण के शरीर को अपने शरीर से छिपाकर खड़ी हुई उसकी सचहरी हरिणी को देख कर, इन्द्र के समान प्रभाव वाले उस धनुर्धारी राजा (दशरथ) ने, प्रेमशक्ति के कारण दयालु-हृदय होकर, कान तक खींचे हुए भी बाण को उतार लिया।

बिल्हण की अनुकरण-शीलता के इतने उदाहरण बस हुए। अब हम आपकी कविता के दो चार अच्छे अच्छे नमूने सादर उद्धृत करके इस निबन्ध को समाप्त करेंगे।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि बिल्हण की कविता बहुत सरस है; और सरस होकर सरल भी है। बिल्हण ने विक्रमादेवचरित को वैदर्भी रीति में लिखा है। माधुर्यव्यञ्जक ललित-रचना को वैदर्भी रीति कहते हैं। इस लक्षण के अनुसार ही बिल्हण ने विक्रमांकदेवचरित की कविता की है। आहवमल्ल की मृत्यु, राज्य के मद से उन्मत्त हुए सोमेश्वर की अनीति और वर्षा आदि का वर्णन बिल्हण ने बहुत ही अच्छा किया है। विक्रमाङ्कदेवचरित में स्थल स्थल पर उत्तमोत्तम प्रसादपूर्ण पद्य पाये जाते हैं। देखिए :-