पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/८

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हैं। ऐसा होने से सम्भव है कि संस्कृत में मूल ग्रन्थों को देखने की इच्छा से कोई कोई उस भाषा का अध्ययन करने लगें, अथवा उनके अनुवाद देखने की अभिलाषा प्रकट करें। अथवा यदि यह कुछ भी न हो; संस्कृत का प्रेममात्र उनके हृदय में अङ्कुरित हो उठे तो उससे भी थोड़ा बहुत लाभ अवश्य ही है।

नैषध-चरित-चर्चा के विषय में जिन विद्वानों ने हमको पत्र लिखे। और विशुद्ध हृदय से, उत्साहवर्द्धक वाक्यों में, सूचनायें की, उनको हम धन्यवाद देते हैं। इस निबन्ध के लिखने में हमने उनकी सूचनाओं को सादर स्वीकार किया है। हम उनका भी धन्यवाद करते हैं जिन्होंने नैषधचरितचर्चा को अक्षम्य दोषों से दूषित पाया। इसमें उनका कोई दोष नहीं। विक्रमाङ्कदेवचरित के कर्ता बिल्हण ने बहुत ठीक कहा है-

द्वेष्यैव केषामिह चन्द्रखण्डविपाण्डुरापुंडकशर्करापि!
अर्थात् चन्द्रमा के समान उजली बनारसी शर्करा से भी कोई कोई पुरुष द्वेष करने लगते हैं।

आधुनिक विद्वानों ने संस्कृत में जिस जीवन-चरित का पहले पहल पता लगाया वह हर्षचरित