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गुंधे हुए अपनी प्रिया के केशपाश का, उस समय, उसे स्मरण आगया।

[७]

रुद्धं विलोक्य हरिणं हरिणी गतापि
व्यावृत्य बाणविपये नृपतेश्र्वचार।
प्रायेण देहविरहादपि दुःसहोऽयं
सर्वाङ्गसंज्वरकर: प्रियविप्रयोगः ॥

विक्र०, सर्ग १६, पद्य ४१ ।

हरिण को रुद्ध हुआ जान, दूर गई हुई भी हरिणों ने, लौट कर, अपने को (हरिण के स्थान में) राजा के बाण का निशाना बनाया। शरीर त्याग से भी अपने प्रिय का वियोग प्रायः विशेष दुःसह और सन्तापकारी होता है।

इस पद्य के पूर्वार्द्ध का भाव बिल्हण ने कालिदास से लिया है। परन्तु इसका उत्तरार्ध, सीधा सादा होने पर भी, चित्त में अधिक चुभता है। और पूर्वार्ध से भी अधिक अच्छा है।

लक्ष्मीकृतस्य हरिणस्य हरिप्रभाव:
प्रेक्ष्य स्थितां सहचरीं व्यवधाय देहम् ।
आकृष्टकर्णमपि कामितया स धन्वी
बाणं कृपामृदुमनाः प्रतिसंजहार ॥

रघुवंश, सर्ग ६, पद्य ५७