यदत्य दैत्या इव लुण्ठनाय
काव्यार्थचौरा: प्रगुणीभवन्ति ॥
विक्र०, सर्ग १, पद्य ११ ।
हे कवीश्वर! साहित्य समुद्र के मन्थन से उत्पन्न हुए अमृत की खच रक्षा करते रहो; क्योंकि देत्यों के समान, उसे लूटने के लिए, काव्यार्थ के चार इस समय बढ़ रहे हैं। यह कह कर आगे दूसरे श्लोक में आप चारी करने की आशा भी देते हैं। सुनिए:-
गृह्णन्तु सर्वे यदि वा यथेष्टं
नास्ति क्षतिः काऽपि कवीश्वराणाम् ।
रत्नेषु नुप्तेषु बहुप्वमय-
रद्यापि रत्नाकर एव सिन्धुः ।।
विक्र० सर्ग १, पद्य १२ ।
अथवा सब लोग यथेष्ट काव्यार्थ को हरण करें, उससे कवीश्वरों की कोई हानि नहीं। देखिए,
यद्यपि देवताओं ने अनेक रत्न निकाल लिये, तिसपर भी, समुद्र अब तक रत्नाकर (रत्नों की खानि) बना ही हुआ है! इसी न्याय के अनुसार, जान पड़ता है, बिल्हण ने रघुवंश से काव्यार्थ हरण करने में कोई हानि नहीं समझी। यदि आज कल के छोटे मोटे कवि दूसरे का अर्थ हरण करें तो वे किसी