पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/७२

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दिग्विजय करने के लिए उद्यत हुए उस राजा की वाराङ्गनायें, भृकुटी रूपी धनुष पर कटाक्ष रूपी बानों को चढ़ाकर, अनङ्ग-नरेश की सेना के समान घोड़े पर शोभायमान हुई। जान पड़ता है कि, उस समय अन्तःपुर के साथ वारवनिताओं को भी बाहर ले जाना राजाओं के लिए कोई निन्दाजनक बात न मानी जाती थी।

इसमें संशय नहीं कि बिल्हण महाकवि थे। इस पर भी उन्होंने कालिदास के कथा-क्रम की, कालिदास के भावों की और कालिदास के वाक्य-विन्यास तक की, छाया ली है। वधस्थान में भी जो पचास पचास मनाहर पद्य कह सकता है उसके लिए ऐसा करना आश्चर्य की बात है। यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि यदि बिल्हण कालिदास के काव्य की छाया न ग्रहण करते तो उनका विक्रमांकचरित नीरस अथवा अपाठ्य होता। फिर हम नहीं जानते क्यों उन्होंने इस प्रकार का अनुचित काम किया। दूसरे के अर्थ को हरण करना उन्होंने स्वयं बुरा कहा है। पाप कहते हैं:-

साहित्यपायोनिधिमन्थनोत्थं
कर्णामृतं रक्षत हे कवीन्द्राः ।