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उन्हें प्रवेश पाने में कठिनाई हुई; द्वार ही पर वे रोक दिये गये। जब उन्होंने समझ लिया कि हम किसी प्रकार भीतर नहीं जाने पाते तब द्वार ही पर एक श्लोक लिख कर उन्होंने उसे राजा के पास भेजा। इस श्लोक का अन्तिम चरण यह है-

बिल्हणो वृषणायते!

इसकी व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं, और न पूरा श्लोक देने ही की आवश्यकता; क्योंकि वह अश्लील होने के कारण जुगुप्सा-जनक है; परन्तु है बड़े मजे का श्लोक।

बिल्हण के ग्रन्थों में से केवल दो ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं-एक उनकी पञ्चाशिका और दूसरा विक्रमाङ्कदेवचरित। पञ्चाशिका का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं। इसमें ५० श्लोक हैं और प्रति श्लोक के आरम्भ में "अद्यापि" है, इस "अद्यापि" से भी बिल्हण के विपत्तिग्रस्त होने की सूचना मिलती है। मरने के समय किसी को श्रृङ्गारिक भाव नहीं सूझते, परन्तु प्रेमातिशय के कारण बिल्हण को उस समय भी अपनी वल्लभा का स्मरण आया। किसी किसी श्लोक में तो उन्होंने "अन्ते स्मरामि" अर्थात् "अन्त समय में मैं उसे स्मरण