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कृष्णा की ओर प्रस्थान किया। गर्व में आकर मार्ग में, जयसिंह के योद्धा और सामन्तों ने अनेक प्रजापीड़क काम किये। नगर लूट लिये गये; कोई कोई जला भी दिये गये। नगर-निवासी कारागारों में डाल दिये गये। विक्रम ने तङ्ग आकर, अन्त में, शस्त्रग्रहण किये और सेना सजा कर वह भी कृष्णा नदी की ओर चला। वहाँ एक बार उसने अपने भाई के पास साम-दाम-सूचक एक पत्र और भेजा; परन्तु उससे भी कोई लाभ न हुआ। अन्त में युद्ध हुआ। युद्ध में पहले यह भासित होने लगा कि हाथियों की अधिकता के कारण, जयसिंह ही के हाथ खेत रहेगा; परन्तु विक्रमाङ्कदेव की वीरता और रण-कुशलता के सामने विपक्षियों की कुछ न चली। जयसिंह की सेना भाग निकली और वह पकड़ लिया गया[]। परन्तु विक्रम ने


  1. विक्रम और जयसिंह के युद्ध का कोई पता इलियट। साहब के प्रकाशित किये गये शिलालेखों में नहीं मिलता। जान पड़ता है, जान बूझ कर विक्रम ने इस बात का किसी शिलालेख में उल्लेख नहीं होने दिया कि कोई यह न जाने कि उसने अपने दोनों भाइयों से युद्ध किया। यह युद्ध १०७७ ईसवी में हुआ।