इससे यह सूचित है कि वह बिल्हण वधिकों के द्वारा राजपुत्री के घर से निकाले गये थे। अस्तु। आज तक जो सुनते आये हैं कि "कवयः किन्न जल्पन्ति" उसके साथ ही यह भी कहना चाहिए कि "कवयः किन्न कुर्वन्ति"। वधस्थल में भी जिसकी बुद्धि ठिकाने रह सकती है और जो इस पञ्चाशिका के समान उत्तम कविता कर सकता है उसके महाकवि और महासाहसवान् होने में कोई सन्देह नहीं।
इस काव्य के अठारहवें सर्ग में बिल्हण ने अपना वृत्तान्त लिखा है, और पहले से लेकर सत्रहवें सर्ग तक विक्रमाङ्कदेव और उसके पूर्वजों के चरित की चर्चा की है। विक्रमाङ्क के चरित को जैसा चाहिए वैसा बिल्हण ने नहीं लिखा, बीच बीच में अनेक बातें छोड़ दी हैं। राजाओं के यहाँ इतिहास में लिखी जाने योग्य प्रतिदिन अनेक बातें हुआ करती हैं, परन्तु बिल्हण ने विक्रमाङ्क के वंश का वर्णन करके और थोड़ा सा वृत्तान्त उसके पिता आहवमल्ल का लिख, इस काव्य के नायक विक्रमाङ्क