पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/२८

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सम्भव है कोङ्कन में गोकर्ण के पास हनोर में वह उतरे हों। वहाँ वह बहुत काल तक दक्षिण में घूमते रहे और घूमते घूमते रामेश्वर तक पहुँचे। वहाँ से लौटने पर कल्याण में विक्रमाङ्कदेव के यहाँ उन्हें आश्रय मिला; और वहीं उन्होंने विद्यापति की पदवी पाई। जान पड़ता है, वृद्धावस्था तक बिल्हण कल्याण ही में रहे, क्योंकि अपने आत्मचरित में गङ्गा के तट पर निवास करने की उन्होंने अभिलाष प्रकट की है। इससे यह भी सिद्ध होता है, कि बिल्हण ने विक्रमाङ्कदेवचरित की रचना वृद्धावस्था में की।

विक्रमाङ्कदेव का दूसरा नाम विक्रमादित्य भी था। उसने १०७६ से ११२७ ईसवी तक कल्याण में राज्य किया इस बात से और काश्मीर के राजा अनन्त, कलश और हर्ष के वर्णन से प्रमाणित होता है कि ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बिल्हण ने देश पर्य्यटन किया। बिल्हण ने जहाँ पर काश्मीर के राजा अनन्त का वर्णन किया है वहाँ 'आसीत्' इस भूतकालिक क्रिया का प्रयोग किया है, जिससे सूचित होता है कि, जिस समय विक्रमाङ्कदेवचरित लिखा गया, उस समय अनन्त की मृत्यु हो चुकी थी।