पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/२७

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
(२१)


है; वहाँ का प्राचीन क़िला अब तक वर्त्तमान है। दाहल के आगे बिल्हण ने अयोध्या का नाम लिखा है, परन्तु काशी से उतनी दूर दक्षिण आकर फिर उत्तर की ओर अयोध्या जाना असम्भव सा जान पड़ता है। बिल्हण ने अपनी वाग्धारा से अयोध्या का पवित्र किया जाना जो लिखा है उससे शायद किसी कविता से अभिप्राय है। सम्भव है, राजा कर्ण के यहाँ वह बहुत दिन तक रहे हों और वहाँ रामचन्द्र के सम्बन्ध में उन्होंने कोई काव्य लिखा हो। दाहल से धारानगरी बहुत दूर न थी; परन्तु भोज की कीर्ति को सुनकर भी बिल्हण वहाँ नहीं गये। प्राचीन शिलालेखों से विदित है कि अण्हिलबाद के राजा भीमदेव प्रथम और कर्ण ने मिल कर पीछे से भोज पर चढ़ाई की थी। सम्भव है कर्ण के और भोज के बीच में वैमनस्य होने ही के कारण बिल्हण धारा को न गये हों। कर्ण की राजधानी को छोड़ कर बिल्हण अण्हिलबाद होते हुए सोमनाथ को गये और वहाँ से बेरावल में जहाज़ पर चढ़ कर दक्षिण भारतवर्ष के लिए उन्होंने प्रस्थान किया। यह नहीं कह सकते कि दक्षिण में कहाँ पर वह जहाज़ से उतरे।