अप्रसन्न होकर त्रैलोक्य-विजयी दस सिरवाले रावण की कीर्ति को धूल में मिला दिया।
यहाँ बिल्हण की आत्मकथा समाप्त हुई।
बिल्हण ने अपने मुख से अपना जो चरित वर्णन किया है उससे यह सिद्ध है कि वह प्रवरपुर से तीन मील दूर खोनमुख ग्राम में उत्पन्न हुआ था। उसके प्रपितामह का नाम मुक्तिकलश और पितामह का राजकलश था। वे दोनों अग्निहोत्री थे और वेदों में पारङ्गत थे। उसके पिता का नाम जेष्ठकलश था। उसने व्याकरण के महाभाष्य की टीका लिखी है। इस टीका का अभी तक पता नहीं लगा; और न अन्यत्र कहीं उसका नाम सुनने में आया। बिल्हण की माता का नाम नागादेवी था। उसके दो भाई और थे-बड़े का नाम इष्टराम और छोटे का आनन्द। वे दोनों विद्वान् और पण्डित थे। बिल्हण ने काश्मीर ही में विद्याध्ययन किया। विशेष करके वेद, व्याकरण और अलङ्कार-शास्त्र में उसने प्रवीणता प्राप्त की।
जैसे इस समय पण्डित लोग अपने विद्याध्ययन की समाप्ति करके धनप्राप्ति की इच्छा से देश देशान्तरों में घूमने के लिए निकलते हैं, और दक्षिण