पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/२३

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भोज की राजधानी धारा को वह न जा सका। मार्ग में कक्षाहीन, अपवित्र और अनुचित शब्दों को उचारण करने वाले गुर्जर-निवासियों को देखने से जो सन्ताप हुआ था उसका परिहार उसने सोमनाथ के दर्शनों से किया। शतशः राजाओं से मिलने की इच्छा से उसने दक्षिण की ओर यात्रा की। वह रामेश्वर तक गया। वहाँ से वह पीछे लौटा और छोटे छोटे राजाओं की ओर द्रक्पात भी न करके केवल बड़े बड़े नरेशों की सभा को उसने अपने गमन से अलङ्कृत किया। इस प्रकार दक्षिणायुध में पर्य्यटन करते करते चालुक्य-वंशीय महाराज विक्रमादेव की सभा में वह पहुँचा। वहाँ उसका सब से अधिक सम्मान हुआ और उसे विद्यापति की पदवी मिली। तब से वह अनेक प्रकार के ऐश्वर्य्यों को भोग करते हुए वहाँ रहने लगा। उस के यश की कहानियाँ दिग्गजों ने भी आनन्द से उन्मत्त होकर सुनी। उसने कर्णाटक के अधिपति विक्रमाङ्क अथवा विक्रमाङ्कदेव के लिए अपने प्रेम का उपहाररूपी यह काव्य बनाया। ईश्वर करे यह बुद्धिमानी के कण्ठ का आभूषण हो।