पांचाल देश से होते हुए वह मथुरा पहुँचा,वहाँ पण्डितों को पराजय देकर कुछ दिन वृन्दावन में उसने निवास किया। ग्रामों में, नगरों में, राजस्थानों में, बस्तियों में और जङ्गलों में, बुद्धिमान् और मूर्ख, युवा और जरठ, स्त्री और पुरुष सबने उसकी कविता को प्रेम से पाठ किया और पाठ करते करते वे आनन्द से उन्मत्त हो उठे। उसकी कीर्ति कान्यकुऩ्ज तक पहुंची और वहाँ से प्रयाग गई। इन दोनों स्थानों में उसने कुछ काल तक निवास किया। जो कुछ द्रव्य उसने अपने अपूर्व गुणों से सम्पादन किया था उसे उसने प्रयाग में दान कर दिया।
वहाँ से वह काशी पहुँचा। काशी में दुश्शील राजाओं के मुखावलोकन से उत्पन्न हुए पापों को उसने भागीरथी में धो डाला। कालिंजर के राजा पर विजय प्राप्त करने वाले दाहल के अधीश्वर कर्ण से जब उसकी भेंट हुई तब दाहल-नरेश ने उसके कविता-पीयूष को आकण्ठ पान किया। दाहल-नरेश के यहाँ प्रसिद्ध कवि गङ्गाधर को उसने परास्त किया। तदनन्तर अपनी वाग्धारा से अयोध्या कोशीतल करके वह गुर्जरदेश की ओर गया, परन्तु