के बीच में एक मुन्दर रमणी दृष्टि गोचर हुई। पुष्पभूति के पराक्रम से प्रसन्न होकर उसने मुंह मांगा वर मांगने को कहा। राजा ने अपने लिये न मांगते हुए भैरवाचार्य की जय चाही। रमणी बोली “तथास्तु, तथा उसकी इस मानसिक उदारता एवं शिव की प्रगाढ़ भक्ति के बदले उसे सूर्य चन्द्र सम तीसरा प्रतापी पुरुष होने का, तथा बड़ा वंश चलाने का वर दिया। इस वंश के राजे पृथ्वी पर अपना अधिकार करेंगे तथा बहुत प्रख्यात होगें। शुचि, सौभाग्य, सत्य, त्याग, धैर्यादि गुणों के कारण वह वीर पुरुष कहलायेगें। इस वंश में सब द्वीपों का अधिपति, हरिश्चन्द्र सम चक्रवर्ती तथा मान्धाता समान त्रिभुवन विजयी श्री हर्ष नामक राजा होगा और कमल चिन्ह युक्त यही हाथ उस के छत्र को पकड़ेगा " इतना कह वह अन्तर्धान हो गई। भैरवाचार्य भी पुष्पभूति को प्रणाम कर आकाश की ओर लीन हो गया। श्री कण्ठ यह कहकर कि काम पड़े पर बुला लेना धरती में समा गया। पुष्पभूति भी टीटिभ पाताल स्वामी और कर्ण ताल को लेकर अपने घर आया। टीटिभ कुछ कालानन्तर चला
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श्री हर्ष