है।' निदान लपट कम होने लगी। ऑच की प्रखरता भन्द हुई। तब कुछ लोग होली के निकट आकर ध्यान पूर्वक देखने लगे। जैसे कोई वस्तु ढूॅढ रहे हों। तुलसा ने बतलाया कि जब वसन्त के दिन होली की नींव पड़ती है, तो पहिले एक एरण्ड गाड़ देते हैं। उसी पर लकड़ी और उपलों का ढेर लगाया जाता है। इस समय लोग उस एरण्ड के पौधे को ढूॅढ रहे हैं। उस मनुष्य की गणना वीरों में होती है जो सबसे पहले उस पौधे पर ऐसा लक्ष्य करे कि वह टूट कर दूर जा गिरे। प्रथम पटवारी साहव पैतरे बदलते आये, पर दस गज की दूरी से झाॅककर चल दिये। तब राधा हाथ मे एक छोटा-सा सोंटा लिये साहस और दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ा और आग मे घुस कर वह भरपूर हाथ लगाया कि पौधा अलग जा गिरा। लोग उन टुकड़ों को लूटने लगे। माथे पर उसका टीका लगाते हैं और उसे शुभ समझते हैं।
यहाॅ से अवकाश पाकर यह पुरुष-मण्डली देवीजी के चबूतरे की ओर बढी। पर यह न समझना, यहाॅ देवीजी की प्रतिष्ठा की गई होगी। आज वे भी गालियाँ सुनना पसन्द करती हैं। छोटे बड़े सब उन्हे अश्लील गालियाॅ सुना रहे थे। अभी थोड़े दिन हुये उन्हीं देवीजी की पूजा हुई थी। सच तो यह है कि गाँवों मे आजकल ईश्वर को गाली देना भी क्षम्य है। माता बहिनों की तो कोई गणना नहीं।
प्रभात होते ही लाला ने महाराज से कहा―‘आज कोई दो सेर भंग पिसवा लो। दो प्रकार की अलग-अलग वनवा लो। सलोनी और मीठी। महागज निकले और कई मनुष्यों को पकड़ लाये। भाँग पीसी जाने लगी। बहुत से कुल्हड़ मँगाकर क्रमपूर्वफ रखे गये। दो धड़ो में दोनों प्रकार की भॉग रखी गयी। फिर क्या था, तीन-चार घण्टों तक पियक्कड़ों का ताॅता लगा रहा। लोग खूब बखान करते और गर्दन हिला हिलाकर महाराज की कुशलता की प्रशंसा करते थे। जहाॅ किसी ने बखान किया कि महाराज ने दूसरा कुल्हड़ भरा और बोले―‘यह सलोनी है। इसका भी स्वाद चख