सुवामा―हाँ, बतलाइए, बड़ा उपकार होगा।
मोटेरास―पहिले तो एक दरख्वास्त लिखवाकर कलक्टर साहिब को दे दो कि मालगुजारी माफ़ की जाय। बाकी रुपये का बन्दोबस्त हमारे उपर छोड़ दो। हम जो चाहेंगे करेंगे, परन्तु इलाके पर आँच न आने पायेगी।
सुवामा―कुछ प्रकट भी तो हो, आप इतने रुपये कहाँ से लायेंगे?
मोटेराम―तुम्हारे लिए रुपये की क्या कमी हैं? मुन्शीजी के नाम पर बिना लिखा-पढी के पचास हजार रुपये का बन्दोबस्त हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। सच तो यह है कि रुपया रखा हुआ है, तुम्हारे मुँह से 'हाँ' निकलने की देर है।
सुवामा―नगर के भद्र पुरुषों ने एकत्र किया होगा?
मोटेराम―हाँ, बात-की-बात में रुपया एकत्र हो गया। साहब का इशारा बहुत था।
सुवामा―कर-मुक्ति के लिए प्रार्थना-पत्र मुझसे न लिखवाया जायगा और न मैं अपने स्वामी के नाम पर ऋण ही लेना चाहती हूँ। मैं सबका एक-एक पैसा अपने गाँवों ही से चुका दूँगी।
यह कहकर सुवामा ने रुखाई से मुँह फेर लिया और उसके पीले तथा शोकान्वित वदन पर क्रोध-सा झलकने लगा। मोटेराम ने देखा कि बात बिगड़ना चाहती है, तो सँभलकर बोले―अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा। इसमे कोई जबरदस्ती नहीं है। मगर यदि हमने तुमको किसी प्रकार का दुख उठाते देखा, तो उस दिन प्रलय हो जायगा। बस, इतना समझ लो!
सुवामा―तो आप क्या यह चाहते हैं कि मैं अपने पति के नाम पर दूसरों की कृतज्ञता का भार रखूँ? मैं इसी घर में जल मरूँगी, अनशन करते-करते मर जाऊँगी, पर किसी की उपकृत न बनूँगी।
मोटेराम―छि! छि! तुहारे ऊपर निहोरा कौन कर सकता है। कैसी बात मुख से निकालतो हो? ऋण लेने में कोई लाज नहीं है। कौन