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फलला के नाम विरजन के पत्र
 

( २ )

'प्यारे
मझगाँव
 

बहुत दिनों के पश्चातू आपकी प्रेम-पत्री प्राप्त हुई। क्या सचमुच पत्र लिखने का अवकाश नहीं? पत्र क्या लिखा है, मानो वेगार टाली है। तुम्हारी तो यह आदत न थी। क्या वहाॅ जाकर कुछ और हो गये? तुम्हें यहाॅ से गये दो मास से भी अधिक होते है। इस बीच मे कई छोटी बड़ी छुट्टियाँ पड़ीं, पर तुम न आये। तुमसे कर बाॅधकर कहती हूॅ–होली की छुट्टो में अवश्य आना। यदि अबकी बार तरसायी तो मुझे सदा उलाहना रहेगा।

यहाॅ आकर ऐसा प्रतीत होता है, मानो किसी दूसरे ससार मे आ गयी हूॅ।रात को शयन कर रही थी कि अचानक हा-हा, हू हू का कोलाहल सुनायी दिया। चौक कर उठ बैठी। पूछा तो ज्ञात हुआ कि लड़के घर घर से उपले और लकड़ी जमा कर रहे थे। होली माता का यही आहार है। यह बेढंगा उपद्रव जहाँ पहुॅच गया, इंधन का दिवाला हो गया। किसी की शक्ति नहीं जो इस सेना को रोक सके। एक नम्बरदार की मड़िया लोप हो गयी। उसम दस बारह बैल सुगमतापूर्वक बाँधे जा सकते थे। होली वाले कई दिन से घात में थे। अवसर पाकर उड़ा ले गये। एक कुरमी का झोपड़ा उड़ गया। कितने उपले वेपता हो गये। लोग अपनी लकड़ियाँ घरों में भर लेते है। लालाजी ने एक पेड़ ईधन के लिए मोल लिया था। आज रात को वह भी होली माता के पेट में चला गया। दो-तीन घरों के किवाड़ उतर गये। पटवारी साहब द्वार पर सो रहे थे। उन्हें भूमि पर ढकेलकर लोग चारपाई ले भागे। चतुर्दिक् ईधन की लूट मची हुई है। जो वस्तु एक बार होली माता के मुख में चली गयी, उसे फिर लाना बडा भारी पाप है। पटवारी साहब ने बड़ी धमकियाॅ दीं मै जमावन्दी बिगाड़ दूॅगा, खसरा झूठ कर दूॅगा, पर कुछ प्रभाव न हुआ। यहाॅ की प्रथा ही है कि इन दिनों होलीवाले जो वस्तु