यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
वरदान
९०
 



जब बहुत देर हो गयी और कमला कमरे से निकला तब बृजरानी स्वयं आयी और बोली— क्या आज घर में आने की शपथ खा ली है? राह देखते देखते आँखें पथरा गयी।

कमला—भीतर जाते भय लगता है।

विरजन—अच्छा, चलो, मैं सग-संग चलती हुँ, अब तो नहीं डरोगे?

कमला—मुझे प्रयाग जाने की आज्ञा मिली है।

विरजन—मैं भी तुम्हारे संग चलूँगी।

यह कहकर विरजन ने कमलाचरण की ओर आँखें उठायीं। उनमें अंगूर के दाने लगे हुए थे। कमला हार गया। इन मोहिनी आँखों में आँसू देखकर किसका हृदय था, का अपने हठ पर दृढ़ रहता? कमला ने उसे कण्ठ से लगा लिया और कहा—मैं जानता था कि तुम जीत जाओगी। इसी लिए भीतर न जाता था। रात-भर प्रेम-वियोग की बातें होती रहीं। बार-बार आँखें परस्पर मिलती, मानो वे फिर कभी न मिलेंगे। शोक! किसे मालूम था कि यह अन्तिम भेंट है। विरजन को फिर कमला से मिलना नसीब न हुआ।

 

 

[ १७ ]
कमला के नाम विरजन के पत्र
(१)

'प्रियतम,
मझगाँव
 

प्रेम पत्र आया। सिर पर चढ़ाकर नेत्रों से लगाया। ऐसे पत्र तुम न लिया करो। हृदय विदीर्ण हो जाता है। मैं लिखूँ तो असगत नहीं। यहाँ चित्त अति व्याकुल हो रहा है। क्या सुनती थी और क्या देखती हूँ? टूटे फूटे फूस के झोपड़े मिट्टी को दीवारें, घरों के सामने कूड़े-करकट के