जन ने पूछा भी कि आजकल दिन भर कहाँ रहते हो? छुट्टी के दिन भी नहीं दीख पड़ते। पर कमलाचरण ने हूँ-हाँ करके टाल दिया।
एक दिन कमलाचरण कहीं बाहर गये हुए थे। विरजन के जी में आया कि लाओ प्रतापचन्द्र को एक पत्र लिख डालूँ, पर बक्स खोला तो चिही का कागज न था। माधवी से कहा कि जाकर अपने भैया के डेस्क में से कागज निकाल ला। माधवी दौड़ी हुई गयी तो उसे डेस्क पर चित्रों का अलबम खुला हुआ मिला। उसने अलवम उठा लिया और भीतर लाकर विरजन से कहा―बहिन! देखो, यह चित्र मिला।
विरजन ने उसे चाव से हाथ में ले लिया और पहिला ही पन्ना उलटा था कि अचम्भा-सा हो गयी। वह उसी का चित्र था। वह अपने पलँग पर चादर ओढे निद्रा में पड़ी हुई थी, बाल ललाट पर बिखरे हुए थे,अधरों पर एक मोहनी मुसकान की झलक थी, मानो कोई मन-भावन स्वप्न देख रही है। चित्र के नीचे लिखा हुआ था―‘प्रेम-स्वप्न‘। विरजन चकित थी, मेरा ऐसा चित्र उन्होंने कैसे खिंचवाया और किससे खिंचवाया? क्या किसी फोटोग्राफर को भीतर लाये होंगे? नहीं, ऐसा क्या वे करेंगे? क्या आश्चर्य हैं, स्वयं ही खींच लिया था। इधर महीनों से बहुत परिश्रम भी तो करते हैं। यदि स्वयं ऐसा चित्र खींचा है तो वस्तुत प्रशसनीय कार्य किया है। दूसरा पन्ना उलटा तो उसमें भी अपना ही चित्र पाया। वह एक साड़ी पहिने, आधे सिर तक आँचल डाले वाटिका में भ्रमण कर रही थी। इस चित्र के नीचे लिखा हुया था―‘वाटिका-भ्रमण'।तीसरा पन्ना उलटा तो वह भी अपना ही चित्र था। वह वाटिका में पृथ्वी पर बैठी हार गूॅथ रही थी। यह चित्र तीनों में सबसे सुन्दर था, क्योंकि चित्रकार ने इसमें बड़ी कुशलता से प्राकृतिक रङ्ग भरे थे। इस चित्र के नीचे लिसा हुया था―‘अलवेली मालिन।' अब विरजन को ध्यान आया कि एक दिन जब मैं हार गूँथ रही थी तो कमलाचरण नील के काँटे की झाड़ी से मुसकुराते हुए निकले थे। अवश्य उसी