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वैराग्य
 

था कि पण्डित मोटेराम शास्त्री―जो कुल के पुरोहित ये―मुमकुराते हुए भीतर आये। उन्हें प्रसन्न देखकर निराश सुवामा चौंककर उठ बैठी कि सायद यह कोई शुभ समाचार लाये हैं। उनके लिए आसन बिछा दिया और आशा-भरी दृष्टि से देखने लगी। पण्डितनी आसन पर बैठे और सुँघनी सुँघते हुए बोले–तुमने महाजनों का लेखा देखा?

सुवामा ने निराशा-पूर्ण शब्दों में कहा―हाँ, देखा तो।

मोटेराम―रकम बड़ी गहरी है। मुन्शीनी ने आगा-पीछा कुछ न सोचा, अपने यहाँ कुछ हिसाब-किताब न रखा।

सुवामा―हाँ, अब तो यह रकम गहरी है, नहीं तो इतने-इतने रुपए क्या, एक-एक भोज में उठ गये हैं।

मोटेराम―सब दिन समान नहीं बीतते।

सुवामा―अब तो जो ईश्वर करेगा सो होगा, मैं क्या कर सकती हूँ?

मोटेराम-हाँ, ईश्वर की इच्छा तो मूल ही है, मंगर तुमने भी कुछ सोचा है?

सुवामा―हाँ, गाँव बेच डालूँगी।

मोटेराम―राम-राम! यह क्या कहती हो? भूमि विक गयी, तो फिर बात क्या रह जायेगी?

सुवामा―इसके सिवाय अब अन्य उपाय नहीं है।

मोटेराम―भला, पृथ्वी हाथ से निकल गयी, तो तुम लोगों का जीवन-निर्वाह कैसे होगा?

सुवामा हमारा ईश्वर मालिक है। वही बेड़ा पार करेगा।

मोटेराम―यह तो बड़े अफसोस की बात होगी कि ऐसे उपकारी पुरुप के लड़के-वाले दुख भोगेंगे।

सुवामा―ईश्वर की यही इच्छा है, तो किसी का क्या बस?

मोटेराम―मला, मैं एक युक्ति बता दूँ कि साँप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे।