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वरदान
 

कुछ पता न चला। दूसरा सप्ताह भी इसी प्रयत्न में समाप्त हो गया। मुन्शीजी के लौटने की जो कुछ आशा शेष थी, वह सब मिट्टी में मिल गयी। मुन्शीनी का अदृश्य होना उनके कुटुम्ब मात्र के लिए ही नही, वरन् सारे नगर के लिए एक शोकपूर्ण घटना थी। हाटों में, दूकानों पर, हथाइयों में अर्थात् चारों ओर यही वार्तालाप होता था। जो सुनता, वही शोक करता-क्या धनी, क्या निर्धन। यह शोक सबको या। उनके कारण चारों ओर उत्साह फैला रहता था। अब एक उदासी छा गयी। जिन गलियों से वे बालकों का झुण्ड लेकर निकलते थे, वहाँ अब धूल उड़ रही थी। बच्चे बराबर उनके पास आने के लिए रोते और हठ करते थे। उन बेचारों को यह सुध कहाँ थी कि अब प्रमोद-समा भग हो गयी है। उनकी माताएँ आँचल से मुख ढाँप-ढाँपकर रोती, मानो उनका सगा प्रेमी मर गया है।

वैसे तो मुन्शीनी के गुप्त हो जाने का रोना सभी रोते थे। परन्तु सबसे गाढे आँसू उन आढतियों और, महाजनों के नेत्रों से गिरते थे, जिनके लेन-देन का लेखा अभी नहीं हुआ था। उन्होंने दस-बारह दिन जैसे-तैसे करके काटे, पश्चात् एक-एक करके लेखा के पत्र दिखाने लगे। किसी ब्रह्मभोज में दो सौ रुपये का घी आया है और मूल्य नहीं दिया गया, कहीं से दो सौ का मैदा आया हुआ है; बजाज का सहस्त्रों का लेखा है। मन्दिर बनवाते समय एक महाजन से बीस सहस्त्र ऋण लिया गया था, वह अमी वैसे ही पड़ा हुआ है। लेखा की तो यह दशा थी। सामग्री की यह दशा कि एक उत्तम गृह और, तत्सम्बन्धिनी सामग्रियों के अतिरिक्त कोई वस्तु न थी, जिससे कोई बड़ी रकम खड़ी हो सके। भू-सम्पत्ति बेचने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय न था, जिससे धन प्राप्त करके ऋण चुकाया जाय।

बेचारी सुवामा सिर नीचा किये हुए,चटाई पर बैठी हुई थी और प्रतापचन्द्र अपने लकड़ी के घोड़े पर सवार आँगन में टख-टख कर रहा