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वरदान
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का प्राण थी। घर वही है, पर चारों ओर उदासी छायी हुई है। रहनेवाले वे ही है; पर सबके मुख मलिन और नेत्र ज्योति-हीन हो रहे हैं। वाटिका वही है, पर ऋतु पतझड़ की है। विदाई के एक मास पश्चात् मुन्शी सजीवनलाल मी तीथयात्रा करने चले गये। धन-सम्पत्ति सब प्रताप को समर्पित कर दी। अपने सग मृगछाला, भगवद्गीता और कुछ पुस्तकों के अतिरिक्त कुछ न ले गये।

प्रतापचन्द्र की प्रेमाकाक्षा बड़ी प्रवल थी। पर इसके साथ ही उसे दमन की असीम शक्ति भी प्राप्त थी। घर की एक-एक वस्तु उसे विरजन का स्मरण कराती रहती थी। वह विचार एक क्षण के लिए भी दूर न होता था कि यदि विरजन मेरी होती, तो ऐसे सुख से जीवन व्यतीत होता। परन्तु इस विचार को वह हटाता रहता था। पढने बैठता तो पुस्तक खुली रहती और ध्यान अन्यत्र जा पहुँचता। भोजन करने बैठता तो बिरजन का चित्र नेत्रों में फिरने लगता। प्रेमाग्नि को दमन की शक्ति से दबाते-दबाते उसकी अवस्था ऐसी हो गयी, मानो वर्षों का रोगी है। प्रेमियों को अपनी अभिलाषा पूरी होने की आशा हो या न हो, परन्तु वे मन-ही-मन अपनी प्रेमिकाओं से मिलाप का आनन्द उठाते रहते हैं। वे भाव-ससार में अपने प्रेम-पात्र से वार्तालाप करते हैं, उसे छेड़ते हैं, उससे रूठते हैं, उसे मनाते हैं और इन भावों से उन्हें तृप्ति होती है और मन को एक सुखट और रसमय कार्य मिल जाता है। परन्तु यदि कोई शक्ति उन्हें इस भावोद्यान की सैर करने से रोके, यदि कोई शक्ति उन्हें ध्यान में भी उस प्रियतमा का चित्र न देखने दे, तो उन अभागे प्रेमियों की क्या दशा होगी? प्रताप इन्हीं अभागों मे से था। इसमें सन्देह नहीं कि यदि वह चाहता तो मुखद भावों का आनन्द भोग सक्ता था। भाव-ससार का भ्रमण अतीव सुखमय होता है, पर कठिनता तो यह थी कि वह बिरजन के ध्यान को भी कुत्सित वासनाओं से पवित्र रखना चाहता था। उसकी शिक्षा ऐसा पवित्र नियमों से हुई थी और उसे ऐसे पवित्रात्माओं और नीतिपरायण मनुष्यों