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कमलाचरण के मित्र
 

सेंध में से निकाला। महाजिन घात में थी ही, डण्डा चला दिया। खटके की आवाज़ आयी। चोर ने झट सिर खींच लिया और यह कहता हुआ सुनायी दिया―‘उफ मार डाला,खोपड़ी भन्ना गयी!’ फिर कई मनुष्यों के हॅसने की ध्वनि आयी और तत्पश्चात् सन्नाटा हो गया। इतने में और लोग भी जाग पड़े और शेप रात्रि बातचीत में व्यतीत हुई।

प्रात काल जब कमलाचरण घर में आये,तो नेत्र लाल थे और सिर में सूजन थी। महाराजिन ने निकट जाकर देखा, फिर आकर विरजन से कहा―बहू, एक बात कहूँ। बुरा तो न मानोगी?

विरजन―बुरा क्यों मानूँगी; कहो,क्या कहती हो?

महराजिन―रात जो सेंध पड़ी थी, वह चोरों ने नहीं लगायी थी।

विरजन―फिर कौन था?

महराजिन―घर ही के भेदी थे। बाहरी कोई न था।

विरजन―क्या किसी कहार की शरारत थी?

महराजिन―नहीं; कहारों में ऐसा कोई नहीं है।

विरजन―फिर कौन था,स्पष्ट क्यों नहीं कहती?

महरानिन―मेरी जान मे तो छोटे बाबू थे। मैने जो लकड़ी मारी थी, वह उनके सिर में लगी। सिर फूला हुआ है।

इतना सुनते ही विरजन की भृकुटी चढ़ गयी। मुखमण्डल अरुण हो आया। क्रुद्ध होकर बोली―महराजिन, होश सँभालकर बातें करो। तुम्हें यह कहते हुए लाज नहीं आती? तुम्हें मेरे सम्मुख ऐसी बात कहने का साहस कैसे हुआ? साक्षात् मेरे ऊपर कलंक का टीका लगा रही हो! तुम्हारे बुढापे पर दया आती है,नहीं तो अभी तुम्हें यहाँ से खड़े-खड़े निकलवा देती। तब तुम्हें विदित होता कि जीभ को वश में न रखने का क्या फल होता है! यहाँ से उठ जाओ,मुझे तुम्हारा मुँह देखकर ज्वर-सा चढ़ रहा है। तुम्हें इतना न समझ पड़ा कि मै कैसा वाक्य मुँह से निकाल रही हूँ। उन्हें ईश्वर ने क्या नहीं दिया है? सारा घर उनका है।