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वरदान
५८
 

दुलहिन घर में लाये हो,कुछ मित्रों की भी फिक्र करो। सुनते हैं,परम सुन्दरी स्त्री पाये हो।

कमलाचरण को रुपए तो ससुराल से मिले ही थे, जेब खनखनाकर बोले-अजी,दावत लो। शरावें उड़ाओ। हाँ,बहुत शोर-गुल न मचाना, नहीं तो कहीं भीतर खबर होगी तो समझेंगे कि ये गुण्डे हैं। जब से वह घर में आयी है,मेरे तो होश उड़े हुए हैं। सुनता हूँ, अग्रेजी, फ़ारसी, सस्कृत, अल्लम-गल्लम सभी घोटे बैठी है। डरता हूँ, कहीं अग्रेजी में कुछ पूछ बैठी, या फारसी में बातें करने लगी,तो मुँह ताकने के सिवाय और क्या करूँगा? इसलिए अभी जी बचाता फिरता हूँ।

यों तो कमलाचरण के मित्रों की संख्या अपरिमित थी। नगर के जितने कबूतरबाज,कनकौए वान गुण्डे थे सब उसके मित्र थे;परन्तु सच्चे मित्रों में केवल पाँच महाशय थे और सभी-के-सभी फाकेमस्त छिछोरे थे। इसमें सबमे अधिक शिक्षित मियाँ मजीद थे। ये कचहरी में अरायजनवीसी किया करते थे। जो कुछ मिलता,वह सब शराब की भेंट करते। दूसरा नवर हम दखा का था। इन महाशय ने बहुत पैतृक सम्पत्ति पायी थी,परन्तु तीन वर्ष में सब कुछ विलास में लुटा दी। अब यह ढग था कि सायड्काल को सज-धजकर गलियों में धूल फाँकते फिरते थे। तीसरे हज़रत सैयदहुसेन थे―पक्के जुआरी, नल के परम भक्त, सैकड़ों के दाव लगाने-वाले, स्त्री के गहनों पर हाथ माँजना तो नित्य का इनका काम था। शेव दो महाशय रामसेवकलाल और चदूलाल कचहरी मे नौकर थे। वेतन कम, पर ऊपरी आमदनी बहुत थी। आधी सुरापान की भेंट करते, आधी भोग―विलास मे उड़ाते। घर के लोग भूखे मरें या भिक्षा मांगें,इन्हें केवल अपने मुख से काम था।

सलाह तो हो चुकी थी। आठ बजे जब डिप्टी साहब लेटे तो ये पाँचों बने एकत्र हुए और शराब के दौर चलने लगे। पाँचों पीने में अभ्यस्त थे। जब नशे का रंग नमा,तो बहक-बह्ककर बातें करने लगे।