ना, मैं न जाने दूँगी।’ यह कहकर मुन्शीजी के दोनों हाथ पकड़ लेती। एक पल में जब होश आ जाता, तो लज्जित होकर कहती-‘मैं सपना देख रही थी, जैसे कोई तुम्हें लिए जा रहा था। देखो, तुम्हें हमारी सौंह है, कहीं जाना नहीं। न जाने कहाँ ले जायगा, फिर तुम्हें कैसे देखूँगी?’ मुन्शीजी का कलेजा मसोसने लगता। उसकी ओर अति करुणा-भरी स्नेह-दृष्टि डालकर बोलते―'नहीं, मैं न जाऊँगा। तुम्हें छोड़कर कहाँ जाऊँगा?' सुवामा उसकी दशा देखती और रोती कि अब यह दीपक बुझा ही चाहता है। अवस्था ने उसकी लज्जा दूर कर दी थी। मुन्शीजी के सम्मुख घण्टों मुँह खोले खड़ी रहती।
चौथे दिन सुशीला की दशा सँमल गयी। मुन्शीजी को विश्वास हो गया, वस यह अन्तिम समय है। दीपक बुझने से पहले भभक उठता है। प्रात काल जब मुँह धोकर वे घर में आये, तो सुशीला ने सकेत द्वारा उन्हें अपने पास बुलाया और कहा-'मुझे अपने हाथ से थोड़ा-सा पानी पिला दो।’ आज वह सचेत थी। उसने विरजन, प्रताप, सुवामा सवको भली-भाँति पहिचाना। वह विरजन को वही देर तक छाती से लगाये रोती रही। जब पानी पी चुकी तो सुवामा से बोली―‘बहिन। तनिक हमको उठाकर बिठा दो, स्वामीजी के चरण छू लूँ। फिर न जाने कब इन चरणों के दर्शन होंगे।’ सुवामा ने रोते हुए अपने हाथों से सहारा देकर उसे तनिक-सा उठा दिया। प्रताप और विरजन सामने खड़े थे। सुशीला ने मुन्शीनी से कहा-'मेरे समीप था बायो' । मुन्शीनी प्रेम और करुणा से विहल होकर उसके गले से लिपट गये और गद्गद् स्वर से बोले―‘घबराओ नहीं, ईश्वर चाहेगा तो तुम अच्छी हो जाओगी।’ सुशीला ने निराश भाव से कहा―‘हां, आज अच्छी हो जाऊँगी। जरा अपना पैर बढा दो। मैं माथे लगा लूँ।‘ मुन्शीजी हिचकिचाते रहे। सुवामा रोते हुए बोली―‘पैर बढा दीजिए, इनकी इच्छा पूरी हो जाय।’ तब मुन्शीजी ने चरण बढा दिये। सुशीला ने उन्हें दोनों हाथों से पकड़कर कई बार चूमा। फिर