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सुशीला की मत्यु
तीन दिन और बीते, सुशीला के जीने की अब कोई सम्भावना न रही। तीनों दिन मुन्शी संजीवनलाल उसके पास बैठे उसको सान्त्वना देते रहे। वह तनिक देर के लिए भी वहाँ से किसी काम के लिए चले जाते, तो वह व्याकुल होने लगती और रो-रोकर कहने लगती―मुझे छोड़कर कहीं चले गये। उनको नेत्रों के सम्मुख देखकर भी उसे सतोप न होता। रह-रहकर उतावलेपन से उनका हाथ पकड़ लेती और निराश भाव से कहती―मुझे छोड़कर कहीं चले तो नहीं जायोगे? मुन्शीजी यद्यपि बड़े द्दढ़चित्त मनुष्य थे, तथापि ऐसी बातें सुनकर अद्रनेत्र हो जाते। थोड़ी-थोड़ी देर में सुशीला को मूर्छा-सी आ जाती। फिर चौंकती तो इधर-उधर भौंचक्की-सी देखने लगती। ‘वे कहाँ गये? क्या छोड़कर चले गये?’ किसी-किसी बार मूर्च्छा इतना प्रकोप होता कि मुशीनी बार-बार कहते―मैं यहीं हूँ, धव-डाओ नहीं। पर उसे विश्वास न आता। उन्हीं की ओर ताकती और पूछती कि―‘कहाँ है? यहाँ तो नहीं है। कहाँ चले गये?’ थोड़ी देर में जब चेत हो जाता तो चुप रह जाती और रोने लगती। तीनों दिन उसने बिरजन, सुवामा, प्रताप एक की भी सुधि न की। वे सब-के-सब हर घड़ी उसके पास खड़े रहते, पर ऐसा जान पड़ता था, मानों वह मुन्शीजी के अतिरिक और किसी को पहचानती ही नहीं है। जब विरजन वेचैन हो जाती और गले में हाथ डालकर रोने लगती, तो वह तनिक आँखें खोल देती और पूछती―‘कौन है, विरजन?’ बस, और कुछ न पूछती। जैसे सूम के हृदय में मरते समय अपने गड़े हुए धन के सिवाय और किसी बात का ध्यान नहीं रहता, उसी प्रकार हिन्दू स्त्री अपने अन्त समय में पति के अतिरिक्त और किसी का ध्यान नहीं कर सकती।
कभी-कभी सुशीला चौंक पड़ती और विस्मित होकर पूछती―‘अरे। यह कौन खड़ा है? यह कौन भागा ना रहा है? उन्हें क्यों ले जाते हो?
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