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वरदान
४८
 

प्रताप के हृदय से विरोध का अन्तिम चिह्न भी विलीन हो गया। यदि ऐसे काल मे भी कोई मत्सर का मैल रहने दे, तो वह मनुष्य कहलाने का हकदार नहीं है। प्रताप सच्चे पुत्रत्व-भाव से आगे बढा और सुशीला के प्रेमाङ्क में जा लिपटा। दोनों आध घण्टे तक रोते रहे। सुशीला उसे अपनी दोनों बाहों से इस प्रकार दबाये हुए थी, मानो वह कहीं भागा जा रहा है। वह इस समय अपने को सैकड़ों धिक्कार दे रहा था कि मैं ही इस दुखिया का प्राणहारी हूँ। मैंने ही द्वेघ-दुरावेग के वशीभूत होकर इसे इस गति को पहुँचाया है। मैं ही इस प्रेम की मूर्ति का नाशक हूँ। ज्यों-ज्यों यह भावना उसके मन में उठती, उसकी आँखों से आँसू बहते। निदान सुशीला बोली-लल्लू। अब मै दो-एक दिन की और मेहमान हूँ। मेरा जो कुछ कहा-सुना हो, यह क्षमा करो।

प्रताप का स्वर उसके वश में न था, इसलिए उसने कुछ उत्तर न दिया।

सुशीला फिर बोली―न जाने क्यों तुम मुझसे रुष्ट हो। तुम हमारे घर नहीं आते। हमसे बोलते नहीं। जी तुम्हें प्यार करने को तरस-तरसकर रह जाता है। पर तुम मेरी तनिक भी सुधि नहीं लेते। बताओ, अपनी दुखिया चची से क्यों रुष्ट हो? ईश्वर जानता है, मैं तुमको सदा अपना लड़का समझती रही। तुम्हें देखकर मेरी छाती फूल उठती थी। यह कहते-कहते निर्बलता के कारण उसकी बोली धीमी हो गयी, जैसे क्षितिन के अथाह विस्तार मे उड़नेवाले पक्षी की बोली प्रतिक्षण मध्यम होती जाती है―यहाँ तक कि उसके शब्द का ध्यानमात्र शेप रह जाता है। इसी प्रकार सुशीला की बोली घीमी होते-होते केवल साँय-साँय रह गयी।

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