छिपाती रही, परन्तु कब तक? रोग बढ़ने लगा और वह शक्तिहीन हो गयी। चारपाई से उठना कठिन हो गया। वैद्य और डाक्टर औषध करने लगे। विरजन और सुवामा दोनों रात-दिन उसके पास बैठी रहतीं। विरजन एक पल के लिए उसकी दृष्टि से ओझल न होने पाती। उसे अपने निकट न देखकर सुशीला वेसुध-मी हो जाती और फूट-फूटकर रोने लगती। मुंशी सजीवनलाल पहिले तो धैर्य के साथ दवा करते रहे, पर जब देखा कि किसी उपाय से कुछ लाभ नहीं होता और बीमारी की दशा दिन-दिन निकृष्ट होती जाती है, तो अन्त में उन्होंने भी निराश हो उद्योग और साहस कम कर दिया। आज से कई साल पहले जब सुवामा बीमार पड़ी थी तब सुशीला ने उसकी सेवा-सुश्रूषा में पूर्ण परिश्रम किया था, अब सुवामा की बारी पायी। उसने पड़ोसी और भगिनी के धर्म का पालन भलीभाँति किया। रुग्ण-सेवा में अपने गृहकार्य को भूल-सी गयी। दो-दो, तीन-तीन दिन तक प्रताप से बोलने की नौबत न आती। बहुधा वह बिना भोजन किये ही स्कूल चला जाता। परन्तु कभी कोई अप्रिय शब्द मुख से न निकालता। सुशीला की रुग्णावस्था ने अब उसकी द्वेषाग्नि को बहुत कम कर दिया था। द्वीप की अग्नि द्वीष्टा की उन्नति और सुदशा के साथ-साथ तीब्र और प्रज्ज्वलित होती जाती है और उसी समय शान्त होती है जब द्वीष्टा के जीवन का दीपक बुझ जाता है।
जिस दिन वृजरानी को ज्ञात हो जाता कि आज प्रताप बिना भोजन किये स्कूल जा रहा है, उस दिन वह सब काम छोड़कर उसके घर दौड़ जाती और भोजन करने के लिए आग्रह करती, पर प्रताप उससे बात तक न करता; उसे रोते छोड़ बाहर चला जाता। निस्सन्देह वह विरजन को पूर्णतः निर्दोष समझता था, परन्तु एक ऐमे सम्बन्ध को, जो वर्ष-छ मास मे टूट जानेवाला हो, वह पहले ही से तोड़ देना चाहता था। एकान्त में बैठकर वह आप ही आप फूट-फूटकर रोता, परन्तु प्रेम के उद्वोग को अधिकार से बाहर न होने देता।