यदि वह घर में बैठी भी होती तो जब तक वह चली न जाती, यह चर्चा न छेड़ता । वह चाहता था कि मेरी किसी बात से इसे कुछ दुख न हो। समय-समय पर मुशी सजीवनलाल ने भी कई बार प्रताप की कथात्रों की पुष्टि की । कमी कमला हाट में बुलबुल लड़ाते मिल बाता, कमी गुण्डों के सग सिगरेट पीते, पान चबाते, वेढगेपन से घूमता हुश्रा दिखायी देता। मुन्शीनी जब नामाता की यह दशा देखते तो घर आते ही स्त्री पर क्रोध निकालते-यह सब तुम्हारी ही करतूत है। तुम्हीं ने कहा था, घर-वर दोनों अच्छे हैं, तुम्ही रीझी हुई थीं। उन्हें उस क्षण यह विचार न होता कि जो टोपारोपण सुशीला पर है, कम-से-कम मुझपर भी उतना ही है। वह वेचारी तो घर में बन्ट रहती थी, उसे क्या ज्ञान था कि लडका कैसा है। वह सामुद्रिक विद्या थोड़े ही पढी थी १ उसके माता-पिता को सभ्य देखा, उनकी कुलीनता और वैभव पर सहमत हो गयी। पर मुन्शीजी ने तो केवल अकर्मणता और आलस्य के कारण छान-चीन न की, यद्यपि उन्हें इसके अनेक अवसर प्राप्त थे, और मुशीजी के अगणित वान्धव इसी भारतवर्ष में अब भी विद्यमान हैं जो अपनी प्यारी बन्यानों को इसी प्रकार नेत्र बन्द करके कुएँ में ढकेल दिया करते हैं । सुशीला के लिए विरनन से प्रिय जगत् में अन्य वस्तु न थी । विरजन उसका प्राण थी, विरजन उसका धर्म थी और विरजन ही उसका सत्य थी। वही उसका प्राणाधार थी, वही उसके नयनों की ज्योति और हृदय का उत्साह थी। उसकी सर्वोच्च सासारिक अभिलापा यह थी कि मेरी प्यारी विरजन अच्छे घर जाय । इसके सास-ससुर देवी-देवता हों, उसका पति शिष्टता की मूर्ति और श्रीरामचन्द्रजी की भौति सुशील हो, उस पर फष्ट की छाया भी न पड़े। उसने मर-मरकर बड़ी मिन्नतों से यह पुत्री पायी थी और उसकी इच्छा थी कि इस रसीले नयनोवानी, अपनी भोली-भाली वाला को अपने मरण-पर्यन्त आँखों से श्रदृश्य न होने दूंगी । अपने जामाता को भी यही बुलाकर अपने घर रखूँगी। बिग्नन के बच्चे होंगे। उनका पोषण
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वरदान
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