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'नहीं।'

'नो विद्वान् और बलवान् हो?'

'नहीं।

'फिर सपूत वेटा किसे कहते हैं?

'जो अपने देश का उपकार करे।

"तेरी बुद्धि को धन्य है! जा,तेरो इच्छा पूरी

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वैराग्य ।

मुशी शालिग्राम बनारस के पुराने रईस थे। नीवन-वृति वकालत थी और पैतृक सम्पत्ति भी अधिक थी। दशाश्वमेध घाट पर उनका वैभवान्वित गृह श्राकाश को स्पर्श करता था। उदार ऐसे कि पचीस-तीस हज़ार की वार्षिक आय भी व्यय को पूरी न होती थी। साधु-ब्राह्मणों के बड़े श्रद्धावान् थे। वे जो कुछ कमाते,वह स्वयं ब्रह्मभोज और साधुओं के भण्डारे एवं सत्कार्य में व्यय हो जाता। नगर में कोई साधु-महात्मा श्रा नाय,वह मुन्शीनी का अतिथि। संस्कृत के ऐसे विद्वान् कि बड़े-बड़े पंडित उनका लोहा मानते थे। वेदान्तीय सिद्धान्तों के वे अनुयायी थे। उनके चित्त की प्रवृत्ति वैराग्य की ओर थी।

मुन्शीजी को स्वभावतः बच्चों से बहुत प्रेम था। मुहल्ले-भर के बच्चे उनके प्रेम-वारि से अभिसिञ्चित होते रहते थे। जब वे घर से निकलते थे तब बालकों का एक दल उनके साथ होता था। एक दिन कोई पापाणहृदया माता अपने बच्चे को मार रही थी। लड़का बिलख-विलखकर रो रहा था। मुन्शीजी से न रहा गया। दौड़े,बच्चे को गोद में उठा लिया और स्त्री के सम्मुख अपना सिर झुका दिया। स्त्री ने उस दिन से अपने लड़के को मारने की शपथ खा ली। जो मनुष्य दूसरों के बालकों का ऐसा