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वरदान
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हमारी बाट देखनी पड़ी। मुझे श्राज अवकाश नहीं है। क्लब-घर जाना है। श्राप फिर कभी श्रावें।

यह सुनकर उन्होंने साहव वहादुर को सलाम किया और इतनीसी वात पर फिर किसी अग्रेज़ की भेंट को न गये। वश-प्रतिष्ठा और आत्मगौरव पर उन्हें बड़ा अभिमान था। वे बड़े ही रसिक पुरुष थे। उनकी बातें हास्य से पूर्ण होती थीं। सन्ध्या के समय जब वे कतिपय विशिष्ट मित्रों के साथ द्वारागण में बैठते, तो उनके उच्च हास्य की गूंजतो हुई प्रतिध्वनि वाटिका से सुनायी देती थी। नौकरों चाकरों से वे बहुत सरल व्यवहार रखते थे,यहाँ तक कि उनके सग अलाव के पास वैठने में भी उनको कुछ सङ्कोच न था। परन्तु उनकी धाक ऐसी छायी हुई थी कि उनकी इस सन्न-नता से किसी को अनुचित लाभ उठाने का साहस न होता था। चाल-ढाल सामान्य रखते थे। कोट-पतलून से उन्हें घृणा थी। वटनदार ऊँची श्रचकन,उस पर एक रेशमी काम का अवा,काला शिमला,ढीला पाजामा और दिल्लीवाल नोकदार जूता उनकी मुख्य पोशाक थी। उनके दुहरे शरीर,गुलाबी चेहरे और मध्यम डील पर जितनी यह पोशाक शोभा देती थी,उतनी कोट-पतलून से सम्भव न थी। यद्यपि उनकी धाक सारे नगर-भर में फैली हुई थी,तथापि अपने घर के मण्डलान्तर्गत उनकी एक न चलती थी। यहाँ उनकी सुयोग्य श्रद्धांगिनी का साम्राज्य था। वे अपने अधिकृत प्रान्त में स्वच्छन्दतापूर्वक शासन करती थीं। कई वर्ष व्यतीत हुए डिप्टी साहब ने उनकी इच्छा के विरुद्ध एक महाराजिन नौकर रख ली थी। महाराजिन कुछ रॅगीली थी,प्रेमवती अपने पति की इस अनुचित कृति पर ऐसी रुष्ट हुई कि कई सप्ताह तक कोपभवन में बैठी रही। निदान विवश होकर डिप्टी साहब ने महाराजिन को विदा कर दिया। तब से उन्हें फिर कभी गृहस्थी के व्यवहार में हस्तक्षेप करने का साहस न हुश्रा।

मुन्शीजी के दो वेटे और एक बेटी थी। बड़ा लड़का राधाचरण गत वर्ष डिग्री प्राप्त करके इस समय रुड़की कालेज में पढता था।उसका