मुन्शीजी―मुकरनेवाले को कुछ कहता हूँ, अभी रुपये लो, ऐसा कोई टुटपूँ जिया समझ लिया है?
यह कहकर दस रुपये का एक नोट जेब से निकालकर दिखाया।
सुशीला―कितने का नोट है?
मुन्शीजी―पचास रुपये का, हाथ में लेकर देख लो।
सुशीला―ले लूँगी, कहे देती हूँ।
मुन्शीजी―हाँ-हाँ, ले लेना, पहिले बताओ तो सही।
सुशीला―लल्लू का है, लाइये नोट, अब मैं न मानूँगी। यह कह- कर उठी और मुन्शीजी का हाथ थाम लिया।
मुन्शीनी―ऐसा क्या डकैती है? नोट छीने लेती हो।
सुशीला―वचन नहीं दिया था? अभी से विचलने लगे।
मुन्शीजी―तुमने बूझा भी, सर्वथा भ्रम में पड़ गयीं।
सुशीला―चलो-चलो; बहाना करते हो, नोट हड़पने की इच्छा है। क्यों लल्लू, तुम्हारी ही चिट्ठी है न?
प्रताप नीची दृष्टि से मुन्शीनी की ओर देखकर धीरे से बोला―मैंने कहाँ लिखी?
मुन्शीनी―लजाओ, लजाओ।
सुशीला―वह झूठ बोलता है। उसी की चिट्ठी है, तुम लोग गँठकर आये हो।
प्रताप―मेरी चिट्ठी नहीं है, सच! विरजन ने लिखी है।
सुशीला चकित होकर बोली―विरजन की? फिर उसने दौड़कर पति के हाथ से चिट्ठी छीन ली और भौंचक्की होकर उसे देखने लगी; परन्तु अब भी विश्वास न आया। विरजन से पूछा―क्यों वेटी, यह तुम्हारी लिखी है?
विरजन ने सिर झुकाकर कहा―हाँ! यह सुनते ही माता ने उसे कण्ठ से लगा लिया।
अब आज से विरजन की यह दशा हो गयी कि जब देखिए, लेखनी