विन्ध्याचल पर्वत मध्यरात्रि के निविड़ अन्धकार में काले देव की भांति खड़ा था। उस पर उगे हुए छोटे-छोटे वृक्ष इस प्रकार दृष्टिगोचर होते थे,मानो ये उसकी जटाएँ हैं। और अष्टभुजी देवी का मन्दिर-जिसके कलश पर श्वेत पताकाएँ वायु की मन्द-मन्द तरङ्गों से लहरा रही थीं--- उस देव का मस्तक है। मन्दिर में एक झिलमिलाता हुआ दीपक या,जिसे देखकर किसी धुंधले तारे का ज्ञान हो जाता था।
अर्धरात्रि व्यतीत हो चुकी थी। चारों ओर भयावह सन्नाटा छाया हुश्रा था। गङ्गानी की काली तरङ्गे पर्वत के नीचे सुखद प्रवाह से वह रही थीं। उनके वहाव से एक मनोरञ्जक राग की ध्वनि निकल रही थी। ठौर-ठौर नावों पर और किनारों के पास-पास मल्लाहों के चूल्हों की श्रांच दिखायी देती थी। ऐसे समय में एक श्वेत वस्त्रधारिणी स्त्री अष्टभुनी देवी के सम्मुख हाथ बांधे बैठी हुई थो। उसका प्रौढ़ मुखमण्डल पीला था और भावों से कुलीनन प्रकट होती थी। उसने देर तक सिर झुकाये रहने के पश्चात् कहा
माता! पान बीस वर्ष से कोई मङ्गलवार ऐसा नहीं गया जब कि मैंने तुम्हारे चरणों पर सिर न झुकाया हो। एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब कि मैंने तुम्हारे चरणों का ध्यान न किया हो। तुम बगतारिणी महारानी हो। तुम्हारी इतनी सेवा करने पर भी मेरे मन की अभिलाषा पूरी न हुई। मैं तुम्हें छोड़कर अब कहाँ नाऊँ ?