वालानी ने सुवामा को देखा तो निकट आकर उसक चर सुवामा ने उन्हें उठाकर हृदय से लगाया। कुछ कहना चाह ममता से मुख न खोल सकी। रानीजी फूलों की जयमाल । उनके कण्ठ में डाल दूंँ, किन्तु चरण थर्राये और आगे न वृजरानी चन्दन का थाल लेकर चली, परन्तु नेत्र श्रावण-घन सने लगे। तब माधवी चली! उसके नेत्रों में प्रेम की झलक पर प्रेम की लाली! अधरों पर मोहिनी मुसकान झलक रह प्रमानन्द में मग्न था। उसने बालाजी की ओर ऐसी चितव अपार प्रेम से भरी हुई थी। तब सिर नीचा करके फूलों उनके गले में डाली । ललाट पर चन्दन का तिलक लगाया
की न्यूनता थी, वह भी पूरी हो गयी। उस समय बालाजी ने ली। उन्हें प्रतीत हुआ कि मैं अपार प्रेम के समुद्र में वहा धैर्य का लगर उठ गया और उस मनुष्य की भांति नो अब फिसल पड़ा हो, उन्होंने माधवी की बाह पकड़ ली। परन्तु तिनके का उन्होने सहारा लिया, वह स्वय प्रेम की धार में वहा जा रहा था। उनका हाथ पड़ते ही माधवी के रोम- दौड़ गयी। शरीर में स्वेद-बिन्दु झलकने लगे और जिस झोंके से पुष्पदल पर पड़े हुए ओस के जलकण पृथ्वी पर उसी प्रकार माधवी के नेत्रों से अश्रु के विन्दु बालाजी के पड़े। ये प्रम के मोती थे, जो उन मतवाली आँखों ने व किये । आज से ये आँखें फिर न रोयेंगी।
अवकाश पर तारे छिटके हुए थे और उनकी आड़ में है यह दृश्य देख रही थीं ! आज प्रात काल बालाजी के स्वाग गाया गया था-
बालाजी, तेरा आना मुबारक होवे ।
और इस समय स्त्रियां अपने मन-भावन स्वरों से गा रही