१७१ | विदाई |
और सकरुण हृदय से एक ठण्ढी साँस निकल आयी । धर्मसिंह ने घबग-कर पूछा-कुशल तो है ?
बालाजी---मटिया मे नदी का वाँध फट गया; दस सहन मनुष्य गृहहीन हो गये।
धर्मसिंह---यो हो !
बालाजी---सहस्रों मनुष्य प्रवाह की भेंट हो गये। सारा नगर नष्ट हो गया। घरों की छतो पर नावें चल रही है। भारत-सभा के लोग पहुँच गये हैं और यथाशक्ति लोगो की रक्षा कर रहे हैं। किन्तु उनकी संख्या बहुत कम है।
धर्मसिंह ( सनलनयन होकर )---हे ईश्वर ! तू ही इन अनाथों का नाथ है।
वालानी---गोपाल-गोशाला बह गयी। एक सहस गाये जलप्रवाह की भेंट हो गयीं। तीन घण्टे तक निरन्तर मूसलाधार पानी बरसता रहा। सोलह इञ्च पानी गिरा। नगर के उत्तरीय विभाग मे सारा नगर एकत्र है। न रहने को गृह है, न खाने को अन्न । शव की गशियों लगी हुई हैं। बहुत-से लोग भूखे मर जाते हैं । लोगों के विलाप और करुण-कन्दन से कलेवा मुँह को पाता है । सब उत्तात-पीड़ित मनुष्य वालानी को बुलाने की रट लगा रहे हैं। उनका विचार है कि मेरे पहुँचने से उनके दुख दूर हो जायेंगे।
कुछ काल तक बालाजी ध्यान में मग्न रहे, तत्पश्चात् बोले-मेरा जाना आवश्यक है । मैं तुरन्त जाऊँगा। श्राप सदिया की भारत-सभा को तार दे दीजिये कि वह इस कार्य में मेरी सहायता करने को उद्यत रहे।
राजा साहब ने सविनय निवेदन किया-आज्ञा हो तो मैं भी चलूं ?
बालाजी---मैं पहुंचकर आपको सूचना दूंगा। मेरे विचार मे आपके जाने की कोई अावश्यक्ता न होगी।
धर्मसिंह---उत्तम होता कि आप प्रात काल ही जाते ।