एक पात्र में रखकर सामने रखे। पर डॉक्टर साहव ने उन्हे हाथ तक न लगाया। केवल इतना कहा-इन्हें मेरी ओर से प्रताप को दे टीनिएगा।वह पैदल स्कूल जाता है,पैरगाड़ी मोल ले लेगा।
विरजन और उसकी माता टोनों सुबामा की शुश्रूपा के लिए उपस्थित रहतीं। माता चाहे बिलम्ब भी कर नाय,परन्तु विरजन वहीं से एक क्षण के लिए भी न टलती। दवा पिलाती, पान देती। जब सुवामा का जी श्रच्छा होता तो वह भोली-भोली वातों द्वारा उसका मन बहलाती। खेलना-कूटना सब छूट गया। नत्र सुत्रामा बहुत हठ करती,तो प्रताप के सग बाग में खेलने चली नाती। दीपक लगते ही फिर या पेटती और नत्र तक निद्रा के मारे मुक-मुक न पड़ती,वहाँ से उठने का नाम न लेती वरन् प्राय वहीं सो जाती। रात को नौकर गोद में उठाकर घर ले जाता। न जाने उसे ऐसी कौन सी धुन सवार हो गयी थी।
एक दिन वृजरानी सुवामा के सिरहाने बैठी पंखा झल रही थी। न जाने किस ध्यान में मग्न थी। श्राखें दीवार की ओर लगी हुई थीं। और जिस प्रकार वृक्षों पर कौमुदी लहराती है,उसी भांति भीनी-भीनी मुसकान उसके अधरों पर लहरा रही थी। उसे कुछ भी ध्यान न था कि चची मेरी श्रोर देख रही है। अचानक उसके हाथ से पखा छूट पड़ा। ज्योंही वह उसके उठाने के लिए झुकी कि सुवामा ने उसे गले लगा लिया और पुचकारकर पूछा-विरजन,सत्य कहो,तुम अभी क्या सोच रही थीं?
विरजन ने माथा झुका लिया और कुछ लजित होकर कहा-'कुछ नहीं,तुमको न बतलाऊँगी।'
सुवामा-मेरी अच्छी विरजन!बता टो,क्या सोचती थी?
विरजन-(लनाते हुए) सोचती थी कि"नायो हेसो मत न बतलाऊँगी।
सुवामा-अच्छा ले,न गुंगी,बतायो। ले,यही तो अब अच्छा,नहीं लगता,फिर मैं श्राखें मूट ले गो।।