यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
वरदान
१५८
 

विरजन―माधवी! ऐसी निराश न हो। क्या इतने दिनों का व्रत एक दिन में भग कर देगी?

माधवी उठी, परन्तु उसका मन बैठा जाता था। जैसे मेघों की काली- काली घटाएँ उठती हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि अब जल-थल एक हो जायगा; परन्तु अचानक पछवा वायु चलने के कारण सारी घटा काई की भाँति फट जाती है, उसी प्रकार इस समय माधवी की गति हो रही है।

वह शुम दिन देखने की लालसा उसके मन में बहुत दिनों से थी। कभी वह दिन भी आयेगा जब कि मैं उनके दर्शन पाऊँगी? और उनकी अमृत-वाणी से श्रवण तृप्त करूँगी? इस दिन के लिए उसने कैसी मानताएँ मानी थीं? इस दिन के ध्यान से ही उसका हृदय कैसा खिल उठता था?

आज भोर ही से माधवी बहुत प्रसन्न थी। उसने बड़े उत्साह से फूलों का हार गूँथा था। सैकड़ो काँटे हाथ में चुमा लिए। उन्मच की भाँति गिर-गिर पड़ती थी। यह सब हर्ष और उमग इसलिए तो था कि आज वह शुभ दिन आ गया। आज वह दिन आ गया, जिसकी ओर चिरकाल से आँखें लगी हुई थीं। वह समय भी अब स्मरण नहीं, जब यह अभिलाषा मन में न रही हो। परन्तु इस समय माधवी के हृदय की वह गति नहीं है। आनन्द की भी सीमा होती है। कदाचित् वह माधवी के आनन्द की सीमा थी, जब वह वाटिका में झूम-झूमकर फूलों से आँचल भर रही थी। जिसने कभी सुख का स्वाद ही न चखा हो, उसके लिए इतना ही आनन्द बहुत है। वह वेचारी इससे अधिक आनन्द का मार नहीं सँमाल सकती। जिन अधरों पर कभी हँसी आयी ही नहीं, उनकी मुसकान ही हँसी है। तुम ऐसों से अधिक हँसी की आशा क्यों करते हो? माधवी बालाजी की ओर चलो, परन्तु इस प्रकार नहीं जैसे एक नवेली बहू आशाओं से भरी हुई श्रृङ्गार किये अपने पति के पास जाती है। वही घर था जिसे वह अपने देवता का मन्दिर समझती थी। जब वह मन्दिर