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प्रेम का स्वप्न
 

वह अपने कल्पित प्रेम में निमग्न थी। आज उसके हृदय में नवीन अभि- लाषाएँ उत्पन्न हुई हैं। अश्रु उन्हीं के प्रेरित हैं। जो हृदय सोलह वर्ष तक आशाओं का आवास रहा हो, यही इस समय माधवी की भावनाओं का अनुमान कर सकता है।

सुवामा के हृदय मे भी नवीन इच्छाओं ने सिर उठाया है। जब तक बालाजी को देखा न था, तब तक उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा यह थी कि वह उन्हें आँख भरकर देखती और हृदय-शीतल कर लेती। आज जब आँख भर देख लिया तो कुछ और देखने की इच्छा उत्पन्न हुई। शोक! वह इच्छा उत्पन्न हुई माधवी के घरौदे की भाँति मिट्टी में मिल जाने के लिए।

आज सुवामा, विरजन और बालाजी में सायकाल तक बातें होती रहीं। वालाजी ने अपने अनुभवों का वर्णन किया। सुवामा ने अपनी रामकहानी सुनायी और विरजन ने कहा थोड़ा, किन्तु सुना बहुत। मुन्शी संजीवनलाल के सन्यास का समाचार पाकर दोनो रोयीं। जब दीपक जलने का समय आ पहुॅचा, तो बालाजी गंगा की ओर सन्ध्या करने चले गये और सुवामा भोजन बनाने बैठी। आज बहुत दिनों के पश्चात् सुवामा मन लगाकर भोजन बना रही है। दोनों बातें करने लगीं।

सुवामा-बेटी! मेरी यह हार्दिक अभिलाषा थी कि मेरा लड़का संसार में प्रतिष्ठित हो और ईश्वर ने मेरी लालसा पूरी कर दी। प्रताप ने पिता और कुल का नाम उज्ज्वल कर दिया। आज जब प्रात काल मेरे स्वामीजी की जय सुनायी जा रही थी तो मेरा हृदय उमड़-उमड़ आया था। मैं केवल इतना चाहती हूॅ कि वे यह वैराग्य त्याग दें। देश का उपकार करने से मैं उन्हें नहीं रोकती। मैने तो देवीजी से यही वरदान माँगा था, परन्तु उन्हें संन्यासी के वेश में देखकर मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जाता है।

विरजन सुवामा का अभिप्राय समझ गयी। बोली-चची! यह बात