वर्षों तक हृदय में चुटकियाँ लेती रही। किन्तु उसी घरौंदे की भाँति यह घर भी ढह गया और आशाएँ निराशा में परिवर्तित हो गयीं।
कुछ काल और बीता, जीवन-काल का उदय हुआ। बिरजन ने उसके चित्त पर प्रतापचन्द्र का चित्र खींचना आरम्भ किया। उन दिनों इस चर्चा के अतिरिक्त उसे कोई बात अच्छी ही न लगती थी। निदान उसके हृदय में प्रतापचन्द्र की चेरी बनने की इच्छा उत्पन्न हुई। पड़े-पड़े हृदय से बातें किया करती? रात्रि में जागरण करके मन का मोदक खाती। इन विचारों से चित्त पर एक उन्माद-सा छा जाता, किन्तु प्रतापचन्द्र इसी बीच में गुप्त हो गये और उसी मिट्टी के घरौंदे की भाँति ये हवाई किले भी ढह गये। आशा के स्थान पर हृदय में शोक रह गया।
अब निराशा ने उसके हृदय में आशा का स्थान ही शेष न रखा। वह देवताओं की उपासना करने लगी, व्रत रखने लगी कि प्रतापचन्द्र पर समय की कुदृष्टि न पड़ने पाये। इस प्रकार अपने जीवन के कई वर्ष उसने तपस्विनी बनकर व्यतीत किये। कल्पित प्रेम के उल्लास में चूर रहती। किन्तु आज तपस्विनी का व्रत टूट गया। मन में नूतन अभिलाषाओं ने सिर उठाया। दस वर्ष की तपस्या एक क्षण में भग हो गयी। क्या यह इच्छा भी उसी मिट्टी के घरौंदे की भाँति पद-दलित हो जायगी?
आज जब से माधवी ने बालाजी की आरती उतारी है, उसके आँसू नहीं रुके। सारा दिन बीत गया। एक-एक करके तारे निकलने लगे। सूर्य थककर छिप गया और पक्षीगण घोंसलों में विश्राम करने लगे; किन्तु माधवी के नेत्र नहीं थके। यह सोचती है कि हाय! क्या मैं इसी प्रकार रोने के लिए बनायी गयी हूँ? मैं कभी हँसी भी थी कि जिसके कारण, इतना रोती हूँ? हाय! रोते-रोते आधी आयु बीत गयी, क्या यह शेव भी इसी प्रकार बीतेगी? क्या मेरे जीवन में एक दिन भी ऐसा न आयेगा, जिसे स्मरण करके सन्तोष ही कि मैंने भी कभी सुदिन देखे थे? आज के पहले माधवी कभी ऐसी नैराश्य-पीड़ित और छिन्न हृदया नहीं हुई थी।