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प्रेम का स्वप्न
 

मगर खिलने के लिए नहीं; वरन् मुरझाने के लिए और मुरझाकर मिट्टी में मिल जाने के लिए। माधवी को कौन समझाये कि तू इन अभिलाषाओ को हृदय में न उत्पन्न होने दे। ये अभिलाषाएँ तुझे बहुत रुलायेंगी। तेरा प्रेम काल्पनिक है। तू उसके स्वाद से परिचित है। क्या अब वास्तविक प्रेम का स्वाद लिया चाहती है?

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प्रेम का स्वप्न

मनुष्य का हृदय अभिलाषाओ का क्रीडास्थल और कामनाओ का आवास है। कोई समय वह था जब कि माधती माता के अक में खेलती थी। उस समय हृदय अभिलाषा और चेष्टाहीन था। किन्तु जब मिट्टी के घरौंदे बनाने लगी उस समय मन में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि मैं भी अपनी गुड़ियों का विवाह करूँगी। सब लड़कियाँ अपनी गुड़ियाँ व्याह रही हैं; क्या मेरी गुड़िया कुॅवारी रहेंगी? मै अपनी गुड़िया के लिए गहने बन-जाऊँगी, उसे वस्त्र पहिनाऊँगी, उसका विवाह रचाऊँगी। इस इच्छा ने उसे कई मास तक रुलाया। पर गुड़िया के भाग्य में विवाह न बदा था। एक दिन मेघ घिर आये और मूसलाधार पानी बरसा। घरौदा वृष्टि में वह गया और गुड़ियों के विवाह की अभिलाषा अपूर्ण ही रह गयी।

कुछ काल और बीता। वह माता के सग विरजन के यहाँ आने-जाने लगी। उसकी मीठ-मीठी बातें सुनती और प्रसन्न होती, उसके थाल में खाती और उसकी गोद में सोती। उस समय भी उसके हृदय मे यह इच्छा थी कि मेरा भवन परम सुन्दर होता, उसमें चाँदी के किवाड़ लगे होते, भूमि ऐसी स्वच्छ होती कि मक्खी बैठे और फिसल जाय! मैं विरजन अपने घर ले जाती, वहाँ अच्छे-अच्छे पक्वान्न बनाती और उत्तम पलँग पर सुलाती और भली-भांति उसकी करती।