कॉलेज और स्कूलों के विद्यार्थी वर्दियाँ पहिने और झण्डियाँ लिये इन्तजार में खड़े हैं। घर-घर पुष्प-वर्षा की तैयारियाँ हो रही हैं। बाजार में दुकानें सजायी जा रही हैं। नगर में एक धूम-सी मची हुई है।
माधवी―इधर से जायेंगे तो हम रोक लेंगी।
प्राणनाथ―हमने कोई तैयारी तो की ही नहीं। रोक क्या लेंगे? और यह भी तो नहीं ज्ञात है कि किधर से जायेंगे।
विरजन―(सोचकर) आरती उतारने का प्रबन्ध तो करना ही होगा।
प्राणनाय-हाँ, अब इतना भी न होगा? मै बाहर विछावन आदि विछवाता हूँ।
प्राणनाथ बाहर की तैयारियों में लगे। माधवी फूल चुनने लगी; विरजन ने चाँदी का थाल धो-धोकर स्वच्छ किया। सेवती और चन्द्रा भीतर सारी वस्तुएँ क्रमानुसार सजाने लगीं।
माधवी हर्ष के मारे फूली न समाती थी। वारम्बार चौक-चौंक कर द्वार की ओर देखती कि कहीं आ तो नहीं गये। बारम्बार कान लगाकर सुनती कि कहीं बाजे की ध्वनि तो नहीं आ रही है। हृदय हर्ष के मारे धड़क रहा था। फूल चुनती थी, किन्तु ध्यान दूसरी ओर था। हाथों में कितने ही काँटे चुमा लिये। फूल के साथ कई शाखाएँ मरोड़ डालीं। कई बार शाखाओं में उलझकर गिरी। कई बार साड़ी काँटों में फँसा दी। उस समय उसकी दशा बिलकुल बच्चों की-सी थी।
किन्तु विरजन का बदन बहुत ही मलिन था। जैसे जलपूर्ण पात्र तनिक हिलने से भी छलक जाता है, उसी प्रकार ज्यों-ज्यों प्राचीन घटनाएँ स्मरण आती थीं, त्यों-त्यों उसके नेत्रों से अश्रु से छलक पड़ते थे। आह! कभी वे दिन थे कि हम और वह भाई-बहिन थे। साथ खेलते थे, साथ रहते थे। आज चौदह वर्ष व्यतीत हुए, उनका मुख देखने का सौभाग्य भी न हुआ। तब मैं तनिक भी रोती तो, वह मेरे आँसू पोछते और मेरा जी-बहलाते। अब उन्हें क्या सुधि कि ये आँखें कितनी रोयी है और इसः