द्वार पर झांकने श्रीयी,तो प्रताप को दोनों हाथों से मुख ढाके हुए देखा। पहले तो समझी कि इसने हँसी से मुख छिपा रखा है। पर जब उसने हाथ हटाये तो आँसू दीख पड़े। चौंककर बोली-लल्लू! क्यों रोते हो?बता दो।
प्रताप ने कुछ उत्तर न दिया,वरन् और सिसक्ने लगा।।
विरजन बोली-न बतायोगे! क्या चाची ने कुछ कहा है ? नाश्री,तुम चुप नहीं होते। .
प्रताप ने कहा- नहीं बिरजन, मां बहुत बीमार है।
यह सुनते ही वृनराना दौड़ी और एक सांस में सुवामा के सिरहाने जा खड़ी हुई। देखा तो वह सुन्न हुई पड़ी है,आँखें मुटी हुई है और लम्बी साँसे ले रही है। उसका हाथ थामकर विरजन झिझोरने लगी;'चची!कैसा जी है १ आँखें खोलों;कैसा जी है?
परन्तु चची ने आँखें न खोली। तब वह ताक पर से तेल उतारकर सुवामा के सिर पर धीरे-धीरे मलने लगी। उस वेचारी को सिर मे महीनों से तेल डालने का अवसर न मिला था; ठण्डक पहुंची तो शाखें खुल गयी।
विरजन-चची! कैसा नी है १ कहीं दर्द तो नहीं है?
सुवामा-नहीं वेटी, दर्द कहीं नहीं है। अब मैं बिलकुल अच्छी हूँ। भैया कहाँ है?
विग्जन-वह तो मेरे घर हैं.बहुत रो रहे हैं।
सुवामा-तुम जानो,उसके साथ खेलो। अब मैं बिलकुल अच्छी हूँ।
अभी ये बातें हो रही थी कि सुशीला का भी शुभागमन हुया। उसे सुवामा से मिलने की तो बहुत दिनों से उत्कण्ठा थी, परन्तु कोई अवसर न मिलता था। इस समय वह सान्त्वना देने के बहाने से या पहँची। विरजन ने अपनी माता को देखा तो उछल पड़ी और ताली बना-बजाकर कहने लगी-मा श्रायी;मा वायी।
दोनों स्त्रियों में शिष्टाचार की बातें होने लगी। बातों-बातों मे दीपक