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वरदान
 

[ २६ ] काशी में आगमन जब से वृजरानी का काव्य-चन्द्र उदय हुआ, तभी से उसके यहाँ सदैव महिलाओं का जमघट लगा रहता था। नगर मे स्त्रियों की कई सभाएँ थीं। उनके सम्बन्ध का सारा भार उसी को उठाना पड़ता था। इसके अतिरिक्त अन्य नगरों से भी बहुधा स्त्रियाँ उससे भेंट करने को प्राती रहती थीं । जो तीर्थयात्रा करने के लिए काशी पाता, वह विरजन से अवश्य मिलता । राजा धर्मसिंह ने उसकी कविताओं का सर्वाङ्ग-सुन्दर सग्रह प्रकाशित किया था। इस संग्रह ने उसके काव्य-चमत्कार का डङ्का बजा दिया था। भारतवष की कौन कहे, यूरोप और अमेरिका के प्रतिष्ठित कवियों ने भी उसे उसकी काव्य-मनोहरता पर धन्यवाद दिया था। भारतवर्ष में एकाध ही कोई रसिक मनुष्य रहा होगा, जिसका पुस्तकालय उसकी पुस्तक से सुशोभित न होगा। विरजन की कविताओं की प्रतिष्ठा करनेवालों में बालाजी का पद सबसे ऊँचा था। वे अपनी प्रभावशालिनी वक्तृताओं और लेखों में बहुधा उसो के वाक्यों का प्रमाण दिया करते थे। उन्होंने 'सरस्वती' में एक बार उसके सग्रह की सविस्तार समालोचना भी लिखी थी। एक दिन प्रातःकाल ही सीता, चन्द्रकुँवर, रुक्मिणी और रानी विरजन के घर आयीं । चन्द्रा ने इन स्त्रियों को फर्श पर बिठाया और आदर-सत्कार किया। विरजन वहाँ नहीं थीं, क्योंकि उसने प्रभात का समय कान्य-चिन्तन के लिए नियत कर लिया था। उस समय यह किसी श्रावश्यककार्य के अतिरिक्त सखियों-सहेलियों से मिलती-जुलती नहीं थी। बाटिका में एक रमणीक कुज था । गुलाब की सुगन्धि से सुरभित वायु चलती थी। वहीं विरजन एक शिलासन पर बैठी हुई काव्य रचना किया करती थी। वह काव्य-रूपी समुद्र से जिन मोतियों को निकालती, उन्हें माधवी लेखनी की माला में पिरो लिया करती थी। अाज बहुत दिनों के बाद नगर-वासियों