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वरदान
१३२
 

उत्साह पैदा होता है, पर विरजन अपनी दुःख-कथा अपने ही मन को सुनाती थी।

सेवती को आये दो-तीन दिन बीते थे। एक दिन उसने विरजन से कहा―मैं तुम्हें बहुधा फिसी ध्यान में मग्न देखती हूँ और कुछ लिखते भी पाती हूँ। मुझे न बताअगी? विरजन लजित हो गयी। बहाना करने लगी कि कुछ नहीं, यों ही जी कुछ उदास रहता है। सेवती ने कहा―‘मैं न मानूँगी।' फिर वह विरजन का बाक्स उठा लायी, जिसमें कविता के दिव्य मोती रखे हुए थे। विवश होकर विरजन ने अपने नये पद्य सुनाने शुरू किये। मुख से प्रथम पद्य का निकलना था कि सेवती के रोएँ खड़े हो गये और जब तक सारा पद्य समाप्त न हुआ, यह तन्मय होकर सुनती रही। प्राणनाथ की सगति ने उसे काव्य का रसिक बना दिया था। बार-बार उसके नेत्र भर आते। जब विरजन चुप हो गयी तो एक समा बँधा हुआ था मानो कोई मनोहर राग अभी ही थम गया है। सेवती ने विरजन को कण्ठ से लिपटा लिया, फिर उसे छोड़कर दौड़ी हुई प्राणनाथ के पास गयी, जैसे कोई नया बच्चा नया खिलौना पाकर हर्ष से दौड़ता हुआ अपने साथियों को दिखाने जाता है। प्राणनाथ अपने अफसर को प्रार्थना पत्र लिख रहे थे कि मेरी माता अति पीड़ित हो गयीं हैं, अतएव सेवा में प्रस्तुत होने में विलम्ब हुआ। आशा करता हूँ कि एक सप्ताह का आकस्मिक अवकाश प्रदान किया जायगा। सेवती को देखकर चट अपना प्रार्थना-पत्र छिपा लिया और मुस्कराये। मनुष्य कैसा धूर्त है! वह अपने आपको भी धोखा देने से नहीं चूकता।

सेवती―तनिक भीतर चलो, तुम्हें विरजन की कविता सुनवाऊँ, फड़क उठोगे।

प्राण०―अच्छा, अब उन्हें कविता की चाट हुई है? उनकी भाभी भी तो गाया करती थी―तुम तो श्याम बड़े बेखबर हो।

सेवती―तनिक चलकर सुनो, तो पीछे हँसना। मुझे तो उसकी कविता