लिखती जाती थी, मानो कोई कवि विचार के समुद्र से मोती निकल रहा है। लेखनी को दाँतों तले दबाती कुछ सोचती और लिखती, फिर योड़ी देर के पश्चात् दीवार की ओर ताकने लगती। प्रताप बहुत देर तक श्वास रोके हुए यह विचित्र दृश्य देखता रहा। मन उसे बार बार ठोकर देता, पर यह धर्म का अन्तिम गढ था। इस बार धर्म का पराजित होना मानो हृद्धाम में पिशाच का स्थान पाना था। धर्म ने इस समय प्रताप को उस खड्डे में गिरने से बचा लिया, जहाँ से आमरण उसे निकलने का सौभाग्य न होता। वरन् यह कहना उचित होगा कि पाप के खड्ड से बचानेवाला इस समय धर्म न था, वरन् दुष्परिणाम और लजा का भय था। फिसी किसी समय जब हमारे सद्भाव पराजित हो जाते है, तब दुष्परिणाम का भय ही हमें कर्त्तव्य च्युत होने से बचा लेता है। विरजन के पीले बदन पर एक ऐसा तेज था, जो उसके हृदय की स्वच्छता और विचार की उच्चता का परिचय दे रहा था। उसके मुखमण्डल की उज्ज्वलता और दृष्टि की पवित्रता में वह अग्नि थी, जिसने प्रताप की दुश्चेटाओं को क्षणमात्र मे भस्म कर दिया। उसे ज्ञान हा गया ओर अपने आत्मिक पतन पर ऐसी लता उत्पन्न हुई कि वहीं खड़ा रोने लगा।
इन्द्रियों ने जितने निकृष्ट विकार उसके हृदय में उत्पन्न कर दिये थे, वे सब इस दृश्य ने इस प्रकार लोप कर दिये, जैसे उनाला अँधेरे को दूर कर देता है। इस समय उसे यह इच्छा हुई कि विरजन के चरणों पर गिरकर अपने अपराधों की क्षमा माँगे। जैसे किती महात्मा सन्यासी के सम्मुख ना कर हमारे चित्त की दशा हो जाती है, उसी प्रकार प्रताप के हृदय में स्वतः प्रायश्चित्त के विचार उत्पन्न हुए। पिशाच यहाँ तक लाया, पर आगे न ले जा सका। वह उलटे पाँवो फिरा और ऐसी तीव्रता से वाटिका में आया और चहारदीवारी से कूदा, मानो कोई उसका पीछा करता है।
अरुणोदय का समय हो गया था, आकाश में तारे झलमला रहे थे