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वरदान
१४
 


प्रताप बोलने ही को था कि विरजन बोल उठी―बाबा। अच्छी-अच्छी कहानियाँ थी। क्यों बाबा! क्या पहले चिड़ियाँ भी हमारी भाँति बातें करती थीं?

मुन्शीजी मुस्कराकर बोले―हाँ! वे खूब बोलती थीं।

अभी उनके मुँह से पूरी वात भी न निकलने पायी थी कि प्रताप, जिसका सकोच अब गायब हो चला था, बोला―नहीं विरजन, तुम्हें भुलाते हैं। ये कहानियाँ बनायी हुई है। मुन्शीनी इस निर्भीकतापूर्ण खण्डन पर खूब हँसे।

अव तो प्रताप तोते की भाँति चहकने लगा―स्कूल इतना बड़ा है नगर-भर के लोग उसमें बैठ जायें। दीवारें इतनी उँची हैं, जैसे ताड़। वलदेवप्रसाद ने जो गेंद में हिट लगायी, तो वह आकाश मे चला गया। बड़े मास्टर साहब की मेज पर हरी-हरी बनात बिछी हुई है। उस पर फूलो से भरे गिलास रखे हैं। गगाजी का पानी नीला है। ऐसे जोर से बहता है कि बीच में पहाड़ भी हो, तो वह जाय। वहाँ एक साधु बाबा हैं। रेल दौड़ती है सन-सन। उसका इञ्जिन बोलता है भक-भक। इन्जिन में भाप होती है, उसी के जोर से गाड़ी चलती है। गाड़ी के साथ पेड़ भी दौड़ते दिखायी देते हैं।

इस भांति कितनी ही बातें प्रताप ने अपनी भोली-भोली बोली में कहीं। विरजन चित्र की भाँति चुपचाप बैठी हुई सुन रही थी। रेल पर वह मी-दो तीन बार सवार हुई थी। परन्तु उसे आज तक यह न ज्ञात या कि उसे किसने बनाया और वह क्योंकर चलती है। दो बार उसने गुरुजी से यह प्रश्न किया था, परन्तु उन्होंने यही कह कर टाल दिया कि बच्चा, ईश्वर की महिमा अपरम्पार है। विरजन ने भी समझ रखा कि ईश्वर की महिमा कोई बड़ा भारी और बलवान घोड़ा है, जो इतनी गाड़ियों को सन-सन खींचे लिये जाता है। जब प्रताप चुप हुआ तो विरजन ने पिता के गले में हाथ डालकर कहा―बाबा! हम भी प्रताप की किताब पढेंगे।