निवास किया है। सेवत: को विश्वास न हुआ। वह चारपाई पर मुकुलित लोचनों से ताक रही थी मानों स्वप्न देख रही है। इतने में प्रेमवती प्यार से बोली―उठो बेटी! उठो! दिन बहुत चढ़ आया है।
सेवती के रोगटे खड़े हो गये और ऑखें भर आयीं। आज बहुत दिनों के पश्चात् माता के मुख से प्रेममय वचन सुने। झट उठ बैठी और माता के गले लिपटकर रोने लगी। प्रेमवती की ऑखों से भी ऑसू की झड़ी लग गयी, सूखा वृक्ष हरा हुआ। जब दोनों के आँसू थमे तो प्रेमवती बोली-सित्तो! तुम्हें आज यह सब बातें अचरज प्रतीत होती हैं, हाॅ बेटी, अचरज ही है। मैं कैसे रोऊँ, जब ऑखों में ऑसू ही न रहे? प्यार कहॉ से लाऊँ, जब कलेजा सूखकर पत्थर हो गया? ये सब दिनों के फेर हैं। आँसू उनके साथ गये और प्यार कमला के साथ। आज-न जाने ये दो बूॅद कहाँ से निकल आये? बेटी! मेरे सब अपराध क्षमा करना।
यह कहते-कहते उसकी ऑख झपकने लगीं। सेवती घबरा गयी। माता को बिस्तर पर लेटा दिया और पंखा झलने लगी। उस दिन से प्रेमवती की यह दशा हो गयी कि जब देखो रो रही है। बच्चे को एक क्षण के लिए भी पास से दूर नहीं करती। महरियों से बोलती तो मुख से फूल झड़ते। फिर वही पहिले की सुशीला प्रेमवती हो गयी। ऐसा प्रतीत होता था, मानों उसके हृदय पर से एक पर्दा सा उठ गया है। जब कड़ाके का जाड़ा पड़ता है, तो प्रायः नदियाँ बर्फ से ढक जाती हैं उसमें धसने-वाले जलचर बर्फ के पर्दे में छिप जाते है, नौकाएँ फँस जाती है और उस मंदगति, रजतवर्ण, प्राण-सजीधन जल स्रोत का स्वरूप कुछ भी दिखायी नहीं देता है। यद्यपि वर्फ की चद्दर की ओट में वह मधुर निद्रा में अलसित पड़ा रहता है; तथापि जब गरमी का साम्राज्य होता है, तो बर्फ पिघल जाता है और रजतवर्णा नदी अपनी वर्फ की चद्दर उठा लेती है, फिर मछलियाँ और जलजन्तु आ बसते हैं, नौकाओं के पाल लहराने लगते हैं ओर तट पर मनुष्यों और पक्षियों या जमघट हो जाता है।