यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
वरदान
१२२
 

बच्चा बीमार पड़ गया, कभी सास रुष्ट हो गयी, कभी साइत न बनी। निदान छठे महीने उसे अवकाश मिला। वह भी बड़ी विनतियों से।

परन्तु प्रेमवती पर उसके आने का कुछ भी प्रभाव न पड़ा। वह उसके गले मिलकर रोयी भी नहीं। उसके बच्चे की ओर आँख उठाकर भी न देखा। उसके हृदय में अब ममता और प्रेम नाम मात्र को भी न रह गया था। जैसे ईख से रस निकाल लेने पर केवल सीठी रह जाती है, उसी प्रकार जिस मनुष्य के हृदय से प्रेम निकल गया, वह अस्थि-चर्म का एक ढेर रह जाता है। देवी-देवता का नाम मुख पर आते ही उसके तेवर बदल जाते थे। मझगाँव में जन्माष्टमी हुई। लोगों ने ठाकुरजी का व्रत रखा और चन्दा से नाच कराने की तैयारियाँ करने लगे। परन्तु प्रेमवती ने ठीक जन्म के अवसर पर अपने घर की मूर्ति खेत में फिकवा दी । एकादशी व्रत टूटा, देवताओं की पूजा छूटी। वह प्रमवती अब प्रमवती ही न थी।

सेवती ने ज्यो त्यो करके यहाॅ दो महीने काटे। उसका चित्त बहुत घबराता। कोई सखी-सहेली भी न थी, जिसके संग बैठकर दिन काटती। विरजन ने तुलसा का अपनी सखी बना लिया था। परन्तु सेवती का स्वभाव सरल न था। ऐसी स्त्रियों से मेल जोल करने में वह अपनी मान-हानि समझती थी। तुलसा बेचारी कई बार आयी, परन्तु जब देखा कि यह मन खोलकर नहीं मिलती तो आना-जाना छोड़ दिया।

तीन मास व्यतीत हो चुके थे । एक दिन सेवती दिन चढे तक सोती रही। प्राणनाथ ने रात को बहुत रुलाया था। जब नींद उचटी तो क्या देखती है कि प्रेमवती उसके बच्चे को गोद में लिये चूम रही है। कभी ऑखों से लगाती है कभो छाती से चिमटाती है। सामने अँगीठी पर हलुआ पक रहा है। बच्चा उसको ओर अँगुली से सकेत कर करके उछलता है कि कटोरे में जा बैठू, और गरम गरम हलुवा चखूँ। आज उसका मुखमण्डल कमल की भाॅति खिला हुया है। स्यात् उसकी तीव्र दृष्टि ने यह जान लिया है कि प्रेमवती के शुष्क हृदय में प्रेम ने आज फिर से