गया था कि ये सब आपत्तियाँ इसी बहू की लायी हुई हैं। यही अभागिनी जबसे घर में आयी, घर का सत्यानाश हो गया। इसका पौरा बहुत निकृष्ट है। कई बार उसने खोलकर विरजन से कह भी दिया कि―तुम्हारे चिकने रूप ने मुझे ठग लिया। म क्या जानती थी कि तुम्हारे चरण ऐसे अशुभ हैं!' विरजन ये बातें सुनती और कलेजा थामकर रह जाती। जब दिन ही बुरे आ गये, तो भली बातें क्योंकर सुनने में आये यह आठों पहर का ताप उसे दुःख के आँसू भी न बहाने देता। आँसू तब निकलते हैं जब कोई हितैषी हो और दु.ख को सुने। वाने और व्यग्य की अग्नि से ऑसू जल जाते हैं।
एक दिन विरजन का चित्त बैठे बैठे घर में ऐसा घबराया कि वह तनिक देर के लिए वाटिका में चली आयी। प्राह! इस वाटिका में कैसे-कैसे आनन्द के दिन बीते थे। इसका एक एक पौधा मरनेवाले के असीम प्रेम का स्मारक था। कभी वे दिन भी ये कि इन फूलों और पत्तियों को देखकर चित्त प्रफुल्लित होता था और सुरमित वायु चित्त को प्रमुदित कर देती था। यही वह स्थल है, जहाॅ अनेक सन्ध्याएँ प्रेमालाप में व्यतीत हुई थीं। उस समय पुष्पों की कलियाँ अपने कोमल अधरों से उसका स्वागत करती थीं। पर शोक। आज उनके मस्तक झुके हुए और अधर बन्द थे! क्या यह वह स्थान न था जहाँ 'अलवेली मालिन' फूलों के हार गूँथती थी? पर भोली मालिन को क्या मालूम था कि इसी स्थान पर उसे अपने नेत्रों से निकले हुए मोतियाँ के हार गूँथने पडेंगे। इन्हीं विचारों में विरजन की दृष्टि उस कुज की ओर उठ गयी जहाँ से एक वार कमलाचरण मुसकराता हुआ निकला था, मानो वह पत्तियों का हिलना और उसके वस्त्रों की झलक देख रही है। उसके मुख पर उस समय मन्द-मन्द मुसकान सी प्रकट होती थी, जैसे गंगा में डूबते हुए सूर्य की पीली और मलिन किरणों का प्रतिबिम्ब पड़ता है। अचानक प्रेमवती ने आकर कर्णकटु शब्दों मे कहा―अब आपको सैर करने का शौक हुआ है!